देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर चीफ जस्टिस के रवैये पर सवाल उठाए। चारों सीनियर जजों का आरोप है कि चीफ जस्टिस महत्वपूर्ण केस वरिष्ठता के आधार पर नहीं बल्कि अपनी पसंद के जूनियर जजों को सौंप रहे हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत में इस तरह का विवाद भले ही देश के इतिहास में पहली बार खुलकर सामने आया हो, लेकिन अहम मामले जूनियर जजों को सौंपे जाने के उदाहरण पहले भी देखने को मिल चुके हैं। पिछले 20 साल की बात की जाए तो कई महत्वपूर्ण केस जूनियर जजों को सौंपे गए हैं।
राजीव गांधी की हत्या की दोषी नलिनी और कुछ अन्य ने 1998 में मृत्युदंड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। उस वक्त यह देश के सबसे हाई प्रोफाइल मामलों में से एक था। तत्कालीन चीफ जस्टिस ने इस केस को सुनवाई के लिए उस समय सुप्रीम कोर्ट के काफी जूनियर जज जस्टिस के टी थॉमस, जस्टिस डी पी वाधवा और जस्टिस एस एस एम कादरी के पास भेजा। उस वक्त चीफ जस्टिस के इस फैसले के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई गई।
वकील लिली थॉमस ने इसी तरह 2005 में एक रिट याचिका दायर कर किसी भी मामले में दोषी करार और दो या उससे अधिक साल के लिए सजा पाने वाले जनता के प्रतिनिधियों (सांसद, विधायक) के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की मांग की थी। भारतीय राजनीति के लिए यह एक ऐतिहासिक फैसला रहा। उस समय के चीफ जस्टिस ने इस केस को कोर्ट नंबर 9 के पास भेजा। उस वक्त इस बेंच की अध्यक्षता जस्टिस ए के पटनायक ने की थी, जो कि सुप्रीम कोर्ट में उस वक्त जूनियर जज थे।
गुजरात दंगों से जुड़े बेस्ट बेकरी केस में 2004 में जाहिरा हबीबुल्लाह शेख ने सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल की थी। गुजरात दंगो का मुद्दा उन दिनों काफी गर्माया हुआ था।और देशभर की नजर इस केस पर थी। इसी केस की सुनवाई के दौरान तत्कालीन राज्य सरकार को ‘आधुनिक काल के नीरो’ की संज्ञा तक दे दी गई थी। उस वक्त भी इस केस की सुनवाई कोर्ट नंबर 11 में हुई जिस बेंच की अध्यक्षता जस्टिस अरिजीत पासायत कर रहे थे। जस्टिस पासायत उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के जूनियर जजों में से ही थे।
सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस
2007 में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस को लेकर दायर रिट याचिका की सुनवाई भी एक जूनियर जज ने ही की थी। अमित शाह और गुजरात पुलिस के लिए बेहद अहम इस केस को जस्टिस तरुण चटर्जी ने सुना जो उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के सबसे जूनियर जजों में से एक थे। इस केस में जस्टिस चटर्जी के आदेश के चलते गुजरात में बीजेपी और उसके नेतृत्व के लिए काफी मुश्किलें पैदा हुईं, लेकिन उस वक्त किसी ने ‘बेंच फिक्सिंग’ जैसा आरोप नहीं लगाया।