देहरादून: चाय उत्पादन के लिए हर लिहाज से उपयुक्त भूमि की उपलब्धता नौ हजार हेक्टेयर और खेती महज 1141 हेक्टेयर में। गुजरे 17 सालों में शेष 7859 हेक्टेयर भूमि को भी चाय बागानों के रूप में विकसित करने की दिशा में पहल होती तो आज सात लाख किलो से अधिक चाय का उत्पादन मिलता, जो सूबे के साथ ही किसानों की आर्थिकी संवारने में अहम भूमिका निभाता। यह है चाय उत्पादन की अपार संभावनाएं लिए उत्तराखंड में चाय की खेती का लेखा-जोखा। हालांकि, अब सरकार ने किसानों की आय दोगुना करने की ठानी है तो चाय बागान विकसित करने पर मंथन शुरू हुआ है।
अतीत के आईने में झांकें तो 1835 में जब अंग्रेजों ने कोलकाता से चाय के 2000 पौधों की खेप उत्तराखंड भेजी तो उन्हें भी विश्वास नहीं रहा होगा कि धीरे-धीरे बड़े क्षेत्र में पसर जाएगी। वर्ष 1838 में पहली मर्तबा जब यहां उत्पादित चाय कोलकाता भेजी गई तो कोलकाता चैंबर्स आफ कॉमर्स ने इसे हर मानकों पर खरा पाया। धीरे-धीरे देहरादून, कौसानी, मल्ला कत्यूर समेत अनेक स्थानों पर चाय की खेती होने लगी। आजादी से पहले तक यहां चाय की खेती का रकबा करीब 11 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गया।
आजादी के बाद वर्ष 1960 के दशक तक उत्पादन में जरूर कमी आई, लेकिन यहां की चाय देश-विदेश में महक बिखेरती रही। वक्त ने करवट बदली और तमाम कारणों से चाय की खेती सिमटने के साथ ही सिमटते चले गए चाय बागान और उत्पादन भी नाममात्र को रह गया। अविभाजित उत्तर प्रदेश में 1990 के दशक में थोड़े प्रयास हुए तो रसातल में पहुंची चाय की खेती थोड़ी आगे बढ़ी।
उत्तराखंड बनने पर 2002-03 में चाय विकास बोर्ड का गठन होने पर प्रयास हुए, लेकिन अभी तक आठ जिलों अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल, चंपावत, पिथौरागढ़, चमोली, रुद्रप्रयाग और पौड़ी में केवल 1141 हेक्टेयर क्षेत्र में ही सरकारी स्तर से चाय की खेती हो रही है। इससे उत्पादन मिल रहा है करीब 80 हजार किलोग्राम।
चाय विकास बोर्ड के निदेशक डॉ.बीएस नेगी के मुताबिक राज्य में नौ हजार हेक्टेयर क्षेत्र चाय की खेती को मुफीद है। इसमें से वर्तमान में 1141 हेक्टेयर का ही उपयोग हो रहा है। शेष भूमि में भी चाय बागान विकसित हों, इसके लिए प्रयास किए जा रहे हैं। इस कड़ी में किसानों से लीज पर भूमि लेने अथवा दूसरे उपायों पर मंथन चल रहा है। बोर्ड की कोशिश है कि उत्तराखंड की चाय को उसके स्वर्णिम दौर की ओर ले जाया जाए।