जलवायु परिवर्तन से अनाज में जिंक (जस्ता) की मात्रा तेजी से घट रही है, जिसका सीधा असर हमारी सेहत पर पड़ रहा है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हैल्थ के अध्ययन में दावा किया गया है कि अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के कारण अनाज में जिंक कम हो रहा है। जिंक की कमी से डायरिया, मलेरिया तथा निमोनिया जैसी बीमारियों का खतरा ज्यादा रहता है। जिंक शरीर के प्रतिरोधक तंत्र को दुरुस्त भी बनाए रखता है।
मैथ्यू स्मिथ, अश्विनी छत्रे, सुपर्णा घोष और सैमुअल एस. म्येर्स द्वारा भारत पर किए गए अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1983 में देश में जिंक की कमी के शिकार लोगों का प्रतिशत 17 था, जो वर्ष 2012 में बढ़कर 25 फीसदी तक पहुंच गया। इसका मतलब यह हुआ कि इन तीन दशकों में 8.2 करोड़ और लोग जिंक की कमी के शिकार हुए। रिपोर्ट में कहा गया कि वर्ष 2050 तक पांच फीसदी और भारतीय आबादी जिंक की कमी के चपेट में आ सकती है। वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन में खाद्यान्न के उपभोग को लेकर 30 सालों के एनएसएसओ के आंकड़ों, देश के विभिन्न हिस्सों में सात परिवारों के खानपान के पैटर्न का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला है।
सभी प्रमुख अनाजों जिसमें चावल, गेहूं, मक्का, जौ तथा फलियां शामिल हैं, उच्च कार्बन उत्सर्जन से प्रभावित हो रही हैं। दक्षिणी भारत समेत देश के जिन हिस्सों में चावल का सेवन ज्यादा होता है, वे लोग जिंक की कमी के ज्यादा शिकार हुए हैं। वहीं शहरी आबादी में भी जिंक की कमी पाई जा रही है।
शरीर का पोषक तत्व : जिंक शरीर के लिए जरूरी आठ सूक्ष्म पोषक तत्वों में से एक है। यह शरीर में नहीं बनता है बल्कि भोजन से ही शरीर को प्राप्त होता है।
इसलिए होती है कमी : कार्बन डाई आक्साइड पौधों के लिए जरूरी है। जितना कार्बन उत्सर्जन ज्यादा होगा, उतने ही पौधों की वृद्धि बेहतर होगी। पौधों की वृद्धि अच्छी हो रही है, लेकिन इससे अनाज के दानों की गुणवत्ता घट रही है।
कितनी कमी : रिपोर्ट के अनुसार, गेहूं, चावल, मक्का, जौ और फलियों में जिंक की कमी 5-11 फीसदी की दर्ज की गई है। यह तुलना 1983 से पहले के आंकड़ों से की गई है।
इस तरह हो समाधान : रिपोर्ट में समस्या का समाधान भी सुझाया गया है। इसके अनुसार, इस समस्या से निपटने के लिए भारत को दो उपाय करने होंगे। एक तो कार्बन उत्सर्जन में कमी लाई जाए।
दूसरे, जिंक की कमी से निपटने के लिए राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम में जिंक को अलग से प्रदान करें।