तीन दशक से अधिक वक्त से देश और प्रदेश के सियासी समीकरणों में उथल-पुथल करते चले आ रहे अयोध्या विवाद को इस बार समाधान मिलेगा या फिर चलेगा इंतजार का सिलसिला, यह प्रश्न एक बार फिर सभी को मथने लगा है। इसको लेकर सर्वोच्च न्यायालय पर सभी की निगाहें टिकी हैं, जो इस विवाद में फैसला देने के लिए 8 फरवरी से सुनवाई शुरू करने जा रहा है।
विश्व हिंदू परिषद को उम्मीद है कि इस बार सुनवाई नहीं टलेगी और लगभग तीन शताब्दी से अधिक समय से चल रहे इस विवाद को 21वीं सदी में समाधान मिल ही जाएगा। बावजूद इसके ये आशंकाएं भी लोगों को परेशान कर रही हैं कि क्या न्यायालय के लिए इस मामले पर फैसला करना बहुत आसान है और क्या उस निर्णय को सभी पक्ष स्वीकार कर लेंगे।
आशंका व्यक्त करने वालों के अपने तर्क हैं। इनका कहना है कि 2010 में उच्च न्यायालय का फैसला आने के पहले जो न्यायालय के निर्णय को स्वीकार करने की बात कर रहे थे, वही बाद में पलट गए। हाशिम अंसारी जैसे पक्षकार जिन्होंने फैसले के तुरंत बाद उसे स्वीकार करने की बात ही नहीं कही थी बल्कि यह भी कहा था कि बहुत हो गया। अब वह इस मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहते, को भी बाद में अपना नजरिया बदलने को मजबूर होना पड़ा। हालांकि कहा यह भी जाता है कि हाशिम को कुछ बड़े लोगों के दबाव में अपना बयान बदलना पड़ा था। जो भी हो, लेकिन उदाहरण यही मिलते हैं कि न्यायालय का निर्णय जिसके प्रतिकूल गया तो वह सर्वोच्च न्यायालय चला गया।
इसलिए सरल नहीं रह गया है मामले का फैसला
भले ही सभी पक्षकार सार्वजनिक रूप से कह रहे हों कि श्रीराम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद विवाद राजनीतिक नहीं है। पर, सच यही है कि इस विवाद ने आज पूरी तरह राजनीति को प्रभावित कर रखा है। अगर यह कहा जाए कि इस मुद्दे का पूरी तरह राजनीतिकरण हो चुका है तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसलिए भी इस मामले का फैसला बहुत सरल नहीं रह गया है।
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों की शैली को लेकर जिस तरह उथल-पुथल रही और वामपंथी एवं आजम खां जैसे नेता जैसी बातें कर रहे हैं उसके चलते भी कई लोगों को इस विवाद का समाधान अदालती फैसले से होना बहुत आसान नजर नहीं आता। जाहिर है कि देश की सर्वोच्च अदालत इस विवाद में निर्णय सुनाती है तो ऐतिहासिक होगा।
इसलिए ऐतिहासिक
ऐतिहासिक इन संदर्भों में कि इससे समाधान की तरफ बढ़ने में मदद मिलेगी। साथ ही इस फैसले के बाद कम से कम न्यायालय के विकल्प पर विराम लग जाएगा। फैसला कुछ भी आए लेकिन केंद्र सरकार को तटस्थ भूमिका से निकलकर विवाद के हल के बारे में सक्रियता से सोचना होगा। यही नहीं, इतने जटिल धार्मिक विवाद का हल कहीं न्यायालय के फैसले से निकल आया हो इसका कोई स्पष्ट उदाहरण इतिहास के पन्नों में नजर नहीं आता।
चढ़ेगा सियासी पारा, सदनों में गूंजेगा मामला
सुनवाई के चलते अयोध्या और श्रीराम मंदिर मुद्दा देश और प्रदेश के सियासी पारे को भी चढ़ाएगा। खास तौर से उत्तर प्रदेश में इस मुद्दे पर जबर्दस्त राजनीतिक हलचल रहने की उम्मीद है। कारण, राजनीतिक दल किसी न किसी बहाने इस मुद्दे को धार देकर सियासी समीकरणों को अपने पक्ष में दुरुस्त करने की कोशिश जरूर करेंगे।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या होगा और उसे सभी पक्ष स्वीकार करेंगे या नहीं, यह तो भविष्य में पता चलेगा लेकिन अगले कुछ दिनों तक यह मुद्दा सड़क से लेकर सदन तक छाया रहेगा, इसमें दो राय नहीं है। एक तो संयोग से जिस दिन सुनवाई शुरू हो रही है उसी दिन प्रदेश में विधान मंडल सत्र शुरू हो रहा है। दिल्ली में संसद का सत्र चल ही रहा है। स्वाभाविक रूप से सदनों में भी यह मामला किसी न किसी रूप में जरूर गूंजेगा।