ब्रिटेन के लोगों ने आखिरकार ‘ब्रेक्जिट” (ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर होने) का विकल्प ही चुना। लेकिन क्या यह अजीब नहीं लगता कि एक ऐसा देश, जिसने कभी तकरीबन आधी दुनिया को अपना उपनिवेश बनाकर उसका शोषण करते हुए अपने साम्राज्य को समृद्ध व शक्तिशाली बनाया था, आज उसने कायरतापूर्ण ढंग से यूरोप से अलग होने का फैसला किया? क्या यह भी एक विडंबना नहीं है कि एक ऐसा राष्ट्र, जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध में जीत के बाद अपने विभिन्न् औपनिवेशिक देशों को आजाद करने के लिए मजबूर होना पड़ा और जिसने इन्हें कमजोर और अभावग्रस्त हालत में छोड़ दिया था, उसने खुद उस यूरोप से अलग होते हुए अपने लिए ‘स्वतंत्रता” सुनिश्चित की, जिसमें इसके कुछ साथी उपनिवेशवादी भी हैं।
यह एक ऐसा यूरोप है, जो इन दिनों उन पुराने उपनिवेशों से आए लाखों प्रवासियों का घर है। ब्रिटेन वास्तव में इस आशंका से भयभीत है कि उसके पूर्व उपनिवेशों से और भी लाखों शरणार्थी आ सकते हैं, जिससे उसकी मूल पहचान पर संकट गहरा सकता है, जैसे कि यूरोप भी अब उतना यूरोपीय नहीं रह गया है। वास्तव में ब्रिटिश लोगों ने अपनी अलग राष्ट्रीय पहचान की चाह, अपने साम्राज्यवादी अतीत की सुखद यादों और अनिश्चित भविष्य के डर के चलते ही इस तरह का फैसला दिया है। पहले स्कॉटलैंड की आजादी पर और अब यूरोपीय संघ संबंधी जनमत संग्रह! दो सालों में इन दो हलचलकारी जनमत संग्रहों ने बता दिया है कि ब्रिटेन किस तरह अपनी पहचान को लेकर जूझ रहा है।
इस जनमत संग्रह में 71.8 फीसदी मतदान हुआ और तीन करोड़ से ज्यादा लोगों ने अपना वोट डाला। यह ब्रिटेन में 1992 के बाद हुए किसी भी चुनाव में सर्वाधिक मतदान है। इसके पक्ष में 52 और विपक्ष में 48 फीसदी वोट पड़े तथा हार-जीत का अंतर 11,79,758 मतों का रहा। 11 लाख मतों से ज्यादा का यह अंतर ऐसे देश में कोई छोटा आंकड़ा नहीं है, जो कि लोकतंत्र का पुरोधा रहा है।
यह जनमत-संग्रह वास्तव में एक सुपर इलेक्शन है। ऐसा सुपर इलेक्शन जिसने ब्रिटेन के आम लोगों को ऐसे वोट का मौका दिया, जो एक वैश्विक गांव में तब्दील हो चुकी धन व बाजार से संचालित दुनिया से ब्रिटेन को बाहर निकाल लाए। इससे यूरोपीय संघ टूट भी सकता है और नहीं भी, जैसी कि इस अभियान के दौरान आशंकाएं जताई गई थीं, लेकिन यह कमजोर तो अवश्य हो जाएगा।
इस जनमत संग्रह के कुछ और पहलू भी हैं। एक तरफ यह इस मायने में ब्रिटिश लोकतंत्र का सम्मान है कि एक प्रधानमंत्री ने भारी दबाव में ही सही, पर अपने चुनावी वादे को निभाते हुए इसका आदेश दिया। यह दुनिया के बाकी लोकतांत्रिक देशों के नेताओं के लिए भी सबक होना चाहिए कि चुनावों के दौरान जो वादे किए जाएं उन्हें निभाया भी जाए। और ऐसे वादे जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता, या पूरा करने की मंशा ही न हो, किए ही न जाएं। लेकिन हम जानते हैं कि राजनेता ऐसा सबक कभी नहीं सीखेंगे और भोलेभाले लोग उन पर भरोसा करते हुए उन्हें वोट देते रहेंगे।
दूसरी ओर यह इस बात का भी सबक है कि किस तरह एक आक्रामक अल्पमत लोकप्रिय तूफान का रूप लेते हुए बहुमत को पस्त कर सकता है। यह भारत में हमारे लिए भी सबक है कि अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद का कार्ड खेलना कितना खतरनाक है, फिर चाहे यह नस्लीय आधार पर हो, धार्मिक, जाति, क्षेत्र या भाषायी आधार पर।
यह ब्रिटिश जनमत-संग्रह वैश्विक भावनाओं की अवहेलना करता है। इसमें भारत भी शामिल है, जिसके आर्थिक मोर्चे पर उभर रही पूर्व औपनिवेशिक ताकतों से मजबूत रिश्ते हैं। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने ब्रिटेन के यूरोपीय संघ में बने रहने के पक्ष में भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार का हवाला यूं ही नहीं दिया था। दोनों पक्षों की कुछ महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं और भारत व्यापार, तकनीकी और नॉलेज के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने की खातिर पश्चिम की ओर देख रहा है। भारत के यूरोपीय संघ के साथ जो भी विवाद हैं, वे संभवत: समय के साथ सुलझ जाएंगे। लेकिन ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से हटने से नई तरह की अनिश्चितताएं पैदा हो गई हैं।
यह चातुर्मासिक अभियान ब्रिटेन में छेड़ा गया अब तक का सबसे विभाजनकारी अभियान था। लोगों में झूठ और डर फैलाया गया व प्रवासियों के खिलाफ भावनाएं भड़काई गईं, जिसे आलोचकों ने खुलेआम नस्लभेद फैलाना कहा। इसने ब्रिटिश समुदाय में भीतर तक पसरे विभाजन को भी उजागर कर दिया है। ब्रेक्जिट-समर्थक पक्ष को उन लाखों मतदाताओं का समर्थन मिला, जो वैश्वीकरण के चलते खुद को हाशिए पर महससू कर रहे थे और जिन्हें लगता था कि ब्रिटेन की नस्लीय-विविधता और खुले बाजार की अर्थव्यवस्था का उन्हें कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है।
प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने इस नतीजे के बाद पद छोड़ने का ऐलान कर दिया है। अब वहां कौन ताकतवर होगा और किसे सत्ता मिलेगी, वास्तव में इस तरह के सवालों के ज्यादा मायने नहीं हैं। ब्रिटेन दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इसके बाहर निकलने से यूरोपीय संघ की आर्थिक शक्ति का छठा हिस्सा क्षीण हो जाएगा, जिसका पूरी दुनिया पर असर होना लाजिमी है।
ब्रिटेन फिर खुद तक सिमट जाएगा, जैसा यह पहले था। किंतु इस नतीजे पर हमें ये तो मानना होगा कि ये ब्रिटिश राजनेताओं, बड़े कारोबारियों के साथ-साथ बराक ओबामा, एंगेला मर्केल समेत दुनिया के उन तमाम नेताओं के खिलाफ भी विरोध जताना है जो ब्रिटेन के यूरोपीय संघ में बने रहने की अपील कर रहे थे।
यूरोपीय संघ में जिस तरह लगातार विकट हालात बने हुए हैं, उससे ब्रिटेन के लोगों का इसके प्रति मोहभंग हो रहा था। इसके अलावा वे इस बात से भी डरे हुए थे कि यूरोप की ओर आ रहे शरणार्थी आखिरकार ब्रिटेन में भी बढ़ने लगेंगे, जिससे यह साम्राज्य एक बार फिर लाखों वैध-अवैध छोटी-छोटी बस्तियों में बंटकर रह जाएगा। इन्हीं सब बातों ने उन्हें इस यूरोपीय दलदल से बाहर निकलने के लिए प्रेरित किया।
यूरोप जैसे हालात अमेरिका में भी बन रहे हैं, जिसे कई अमेरिकियों द्वारा अपनी घटती ताकत के तौर पर देखा जा रहा है। वहां मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव ‘अमेरिका को पुन: सर्वशक्तिमान बनाने” की भावनाओं के आधार पर लड़ा जा रहा है। देखते हैं कि नवंबर में इस मुहिम को हवा दे रहे डोनाल्ड ट्रम्प जीतेंगे या फिर हिलेरी क्लिंटन बाजी मारेंगी? ऐसा नहीं है कि हिलेरी क्लिंटनउदारवाद की आदर्श मिसाल हैं, लेकिन क्या वे उस रूढ़िवाद का रुख मोड़ पाएंगी, जो 1980 के दशक में दबे पांव चला आया था, जब अमेरिका में रोनाल्ड रीगन और ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर की जीत हुई थी?