संसार के प्रायः सभी वर्गों व धार्मिक मान्यताओं में अदृश्य शक्तियों अर्थात् भूत-प्रेतादि जैसी शक्तियों के अस्तित्व को अपने-अपने अंदाज से स्वीकार किया गया है। दरअसल ऐसी मान्यता है कि आत्मा अजर-अमर है जो मनुष्यों के मरणोपरांत भी नष्ट नहीं होती, बल्कि इन्हीं में से अतृप्त आत्माओं की कल्पना भूत-प्रेतादि के रूप में की जाती है।
ये मृत्यु के बाद जाते प्रेत-योनि में
धार्मिक ग्रंथों में है इनका कई जगह वर्णन
हालांकि विज्ञान भूत-प्रेतों में यकीन नहीं करता है। मगर हमारे धार्मिक ग्रंथ गीता में धुंधुकारी प्रेत की कथा सर्वविदित है। ऋग्वेद में भी अनेक स्थानों पर प्रेत-पिशाचों का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा महाभारत तक में पितामह भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को श्राद्ध विधि समझाने के प्रकरण में देव पूजन से पूर्व गन्धर्व, दानव, राक्षस, प्रेत, पिशाच, किन्नर आदि के पूजन का वर्णन आता है ।
दिलचस्प बात है कि केवल हिन्दू दर्शन में ही प्रेतों के अस्तित्व को स्वीकारा गया है, बल्कि इनके अतिरिक्त बौद्ध धर्म, पारसी, इस्लाम, यहूदी तथा ईसाई धर्मों के मानने वाले भी एकमत से इस योनि को स्वीकाराते हैं। मगर यहां अहम बात है कि सदियों से ऐसी मान्यता चली आ रही है कि भूत-प्रेत केवल कमजोर दिल के लोगों या जिनमें आत्मविश्वास की कमी होती है,उनको ही अपने वश में कर पाते हैं।
अतृप्त आत्माएं ही बनती हैं भूत
वेदों के अनुसार जो व्यक्ति भूखा, प्यासा, संभोगसुख से विरक्त, राग, क्रोध, द्वेष, लोभ, वासना आदि इच्छाएं और भावनाएं लेकर मरा है या फिर दुर्घटना, हत्या, आत्महत्या आदि से मरा है तो वह भूत बनकर भटकता है। ऐसे व्यक्तियों की आत्मा को तृप्त करने के लिए श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। दरअसल अकाल मृत्यु या किसी अतृप्त इच्छा भी इनकी उत्पत्ति की सबसे बड़ी वजह मानी गई है।
मान्यताओं के अनुसार, भूत हमेशा ज्यादा शोरगुल, सूर्य की किरणों और मंत्र उच्चारण से यह दूर रहते हैं। इसीलिए इन्हें कृष्ण पक्ष ज्यादा पसंद है और तेरस, चौदस तथा अमावस्या को यह मजबूत स्थिति में रहकर सक्रिय रहते हैं। भूत-प्रेत प्रायः उन स्थानों में दृष्टिगत होते हैं जिन स्थानों से मृतक का अपने जीवनकाल में संबंध रहा है या जो एकांत में स्थित है। इसी कारण से बहुत दिनों से खाली पड़े घर या बंगले में भी भूतों का वास हो जाता है।
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