प्रयाग को ब्रह्मवैवर्त पुराण में तीर्थराज कहा गया है। ऐसा कहना गलत भी नहीं है, क्योंकि पुराणों में तीर्थ की जो परिभाषा दी गई है उसके अनुसार वह दिव्यभूमि जहां सदियों से धार्मिक कार्यों का अनुष्ठान, यज्ञ, जप, तप और सत्संग होता रहता है वह तीर्थस्थान बन जाता है।
क्योंकि उस स्थान के कण-कण में देवत्व की महिमा का तेज और दिव्य ऊर्जा का संचार होने लगता है जिससे आम जनमानस को मानसिक शुद्धि और आत्मिक शांति की प्राप्ति होती है। सभी तर्थों में प्रयाग तीर्थ का सबसे अधिक महत्व है। इसका कारण यह है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह ऋषियों की तपोभूमि रही है। सागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश से छलककर अमृत की बूंद यहां गिरी थी।
इस घटना के बाद से यहां कुंभ का आयोजन होता चला आ रहा है जिसमें जप, तप, यज्ञ, हवन और सत्संग की धारा बहती है। कुंभ की तरह यहां हर साल कल्पवास का भी आयोजन होता रहा है लेकिन, क्या यह कुंभ के पहले से होता रहा है या बाद में होना शुरू हुआ है यह कहना कठिन है।
लेकिन धर्मग्रंथों और इतिहास के पन्नों में जैसा उल्लेख है उससे मालूम होता है कि जबसे मानव का इतिहास है तबसे यहां कल्पवास की परंपरा चली आ रही है। इससे यहां अध्यात्म की ऊर्जा सबसे अधिक है। इसलिए प्रयाग को सभी तीर्थों में श्रेष्ठ माना गया है।