तीन महीने पहले जब वे पांडुलिपि के साथ मिले तो ऐसी स्थिति बिल्कुल नहीं थी कि इस पुस्तक को आगामी 5 जनवरी से दिल्ली में हो रहे विश्व पुस्तक मेले में प्रकाशित होने वाले संवाद के नए सेट में शामिल किया जा सके। सारा काम आखिरी चरण में था। पर नेहरू पर जिस तरह झूठ की फैक्ट्रियां खोलकर एक दल विशेष और उसके अनुचरों ने आरोप लगाए हैैं और देश की जनता को साइबर से संसद तक भ्रमित करने का यत्न किया है, उससे हमारा यह दायित्व बनता था कि सच को सामने लाया जाए।
यह नेहरू के भारत को दिए गए ऐतिहासिक और विराट अवदान के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का तकाजा तो था ही, यह सत्य और देशप्रेम का भी तकाजा था कि तथ्यों, दस्तावेजों, सबूतों के साथ उस महान गाथा को देश समुचित सम्मान दे, जो आजादी के बाद आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक हर दृष्टि से पूरी तरह प्रतिकूल परिस्थितियों में इस देश में हैरतअंगेज ढंग से घटी। पीयूष ने वर्षों से अथक मेहनत की थी। हजारों दस्तावेजों को उन्होंने थाहा, पुस्तकालयों के चक्कर लगाए, किताबें खरीदीं।
पूरे मन और तन्मयता से यह काम किया। पूरी तरह वस्तुनिष्ठ और तथ्यात्मक। यह पुस्तक सिर्फ एक पुस्तक नहीं है, भारत की आगामी पीढ़ी को यह एक संदेश है कि यदि अपने अतीत को झूठ से नष्ट करोगे तो तुम भविष्य के अधिकारी नहीं। यह पुस्तक, , उसके शीर्षस्थ नेता, संसद में नेहरू के बारे में बारंबार झूठ बोलने वाले सम्मानीय प्रधानमंत्री और समस्त अनुषांगिक संगठनों के लिए एक चुनौती है कि वे इसे पढ़ें और झूठ और दुष्प्रचार का सहारा लेकर नहीं, सत्य और तथ्य की रोशनी में इसका खंडन करें। यह पुस्तक उस कांग्रेस और उन नेताओं के लिए भी एक चुनौती है कि वे जिस नेहरू का हवाई महिमामंडन करते हैं, उनका नाम लेकर अपनी राजनीति करते हैं, क्या वे उस नेहरू को, उसके मस्तिष्क को और भारत की आजादी और विकास को सुनिश्चित करने के उसके कार्यों की गहनता का कोई अनुमान भी रखते हैं।
मुझे खुशी है कि बिल्कुल अंतिम समय में लिए इस काम को संपादित कर सका और यह पुस्तक भी पुस्तक मेले में आ सकेगी। एक दायित्व को पूरा करने का अहसास है।
आलोक श्रीवास्तव