बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया है. वो कहते हैं कि यह उनकी अंतरात्मा की आवाज़ है. उन्होंने कहा कि उन्हें काम नहीं करने दिया जा रहा था और सार्वजनिक जीवन में जब आरोप लगें तो उनका जवाब देना ही पड़ता है. उनका इशारा राज्य के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की ओर था जिनपर हाल के दिनों में कुछ अनियमितताओं के मामले सामने आए हैं.
अनियमितताओं के ये मामले आज नीतीश का हथियार भी हैं और मजबूरी भी. मजबूरी इसलिए क्योंकि इसी के चलते उन्हें महागठबंधन को ताक पर रखना पड़ा और अपनी राजनीति के मूल सिद्धांतों की दुहाई देते हुए मुख्यमंत्री पद त्यागना पड़ा. हथियार इसलिए क्योंकि नीतीश इसी इस्तीफे के दम पर कई और चीज़ें जीत भी रहे हैं.
पहला प्रत्यक्ष लाभ यह है कि सत्ता नीतीश से दूर नहीं हुई है. सत्ता में बने रहने की स्थिति को नीतीश कुमार ने और मजबूत कर लिया है. उनके नैतिक फैसले ने उनकी साख और संभावना दोनों को मजबूत किया है. नीतीश को समर्थन देना अब भाजपा के लिए पहले से और आसान हो गया है. हालांकि भाजपा ने पहले ही कह दिया था कि वो नीतीश को समर्थन देने को तैयार हैं.
तो भले ही ऐसा लगे कि नीतीश सत्ता से बाहर हो गए लेकिन दरअसल नीतीश की जड़ और पकड़ मज़बूत हुई हैं. वो इस एक वार से लालू प्रसाद यादव और राजद पर लग रहे आरोपों से भी पाक-साफ बच निकले और यह भी साबित कर दिया कि भले ही लालू प्रसाद के पास संख्या ज़्यादा हो, राजनीति में पलड़ा उनका ही भारी है.
आज देशभर में समान न्यूनतम वेतन के लिए पेश किया जाएगा नया बिल
2015 में नीतीश को लालू की ज़रूरत थी लेकिन आज नीतीश के लिए लालू एक बोझ हैं और इस इस्तीफे से नीतीश कुमार ने वो बोझ अपने कंधों से उतारकर लालू के सामने रख दिया है. लालू अब नीतीश को महागठबंधन और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते रहें लेकिन इससे नीतीश की राजनीति और पैंतरे में कोई तब्दीली की गुंजाइश नहीं है. नीतीश को पता है कि आगे का रास्ता कैसे तय करना है और सबकुछ एक तय पटकथा की तरह आगे बढ़ रहा है.
चोट महागठबंधन पर, दरार यूपीए में
नीतीश कुमार ने दरअसल महागठबंधन को ही नहीं, यूपीए को भी लात मारी है. नीतीश कुमार बार-बार ये संकेत देते रहे कि वो विपक्ष के नेता हैं. ऐसे नेता हैं जिसमें खुद निर्णय लेने की सलाहियत है और वो किसी भी तरह से कांग्रेस के नेतृत्व वाली कथित विपक्षी एकता को स्वीकारने के लिए बाध्य नहीं हैं.
नीतीश ने ऐसा बार-बार साबित किया. तब, जबकि विपक्ष नोटबंदी के खिलाफ एक सुर से विरोध प्रकट कर रहा था. इसके बाद राष्ट्रपति चुनाव में भी नीतीश ने यूपीए के चेहरे को नकारा और भाजपा के प्रत्याशी को अपने समर्थन की घोषणा की.
दरअसल, नीतीश अपने को कांग्रेस के अधीन नहीं, कांग्रेस के समकक्ष दिखाना चाहते हैं. वो चाहते हैं कि उनकी छवि अभी भी यूपीए में विपक्ष खोजते नेता तक सीमित न रहे. नीतीश इस दांव के बाद कांग्रेस के पीछे नहीं, कांग्रेस के बराबर खड़े हो गए हैं.
Live Halchal Latest News, Updated News, Hindi News Portal