नई दिल्ली. तिब्बत और तिब्बतवासियों के लिए 17 मार्च का दिन ऐतिहासिक महत्व रखता है. क्योंकि 17 मार्च 1959 को तिब्बतियों के धर्मगुरु परमपावन दलाई लामा चीन को चकमा देकर तिब्बत से पलायन कर गए थे. तत्कालीन चीनी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए डांस प्रोग्राम का न्योता देकर झांसा देने की कोशिश की थी.
लेकिन दलाई लामा चीन की इस चाल को समझ गए और अपने कुछ विश्वस्त सहयोगियों के साथ तिब्बत से निकल गए. हिमालय पर्वत की बर्फीली चोटियों और दर्रों के रास्ते दलाई लामा और उनके साथियों ने तीन हफ्ते की कठिन यात्रा की. तिब्बतियों के इस प्रधान का तत्कालीन भारत सरकार के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने स्वागत किया और उन्हें अपने देश में रहने की अनुमति दी. आइए तिब्बतियों के संघर्ष को याद करते हुए आज दलाई लामा के पलायन की कहानी पढ़ते हैं.
सैनिक के वेश में विश्वस्तों के साथ पलायन
10 मार्च 1959 को चीन के जनरल ज़ंग छेनवु ने चीनी नृत्य मंडली द्वारा एक संगीत नाट्य में सम्मिलित होने के लिए तिब्बती नेता को एक सीधा सादा प्रतीत होने वाला निमंत्रण भेजा था. लेकिन इसके साथ कुछ शर्तें भी थीं कि दलाई लामा के साथ तिब्बती सैनिक नहीं होंगे. उनके साथ के अंगरक्षक निशस्त्र होंगे. चीनी सेना के इस झांसे पर ल्हासा के जनमानस में चिंता फैल गई. देखते-देखते नोरबुलिंगा राजभवन के आसपास हजारों तिब्बती इकट्ठा हो गए. वे अपने युवा नेता के साथ होने वाले किसी भी किस्म के बर्ताव का बदला लेने को तैयार थे. तिब्बतियों का हुजूम किसी भी कीमत पर अपने गुरु की सलामती चाहता था. साथ ही लोगों की यह भी इच्छा थी कि दलाई लामा देश न छोड़ें.
भविष्यवाणी करने वाले ने कहा- छोड़ना होगा तिब्बत
एक तरफ तिब्बती जनमानस दलाई लामा के देश छोड़ने के निर्णय को मानने के खिलाफ था, वहीं देश के नीति-निर्माता किसी भी तरह बौद्ध धर्मगुरु को चीनी शिकंजे से बचाना चाहते थे. 17 मार्च 1959 को ल्हासा में नेछुंग भविष्यवाणी कर्ता के साथ बैठक हुई. इसमें परम पावन दलाई लामा, जो तिब्बतियों के निर्विवाद नेता थे, उन्हें देश छोड़ने का स्पष्ट संदेश दे दिया गया. भविष्यवाणी करने वाले के निर्णय की पुष्टि उस समय हुई, जब परम पावन द्वारा किए गए भविष्य कथन का भी वही उत्तर मिला. अंततः फैसला ले लिया गया कि दलाई लामा तिब्बत छोड़ेंगे.
रात में सैनिकों के वेश में साथियों के साथ निकले परम पावन
भविष्यवाणी करने वाले का संदेश मिलने के बाद दलाई लामा के तिब्बत छोड़ने की योजना बनाई जाने लगी. लेकिन ल्हासा में चीनी सैनिकों की भारी तादाद में मौजूदगी बड़ी बाधा थी. ऐसे में दलाई लामा के लिए महल से निकलना खतरनाक हो सकता था. आखिरकार निर्णय हो गया. रात में जब 10 बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे, एक साधारण सैनिक के वेश में परम पावन दलाई लामा महल से निकले. उनके साथ विश्वस्त सैनिकों का एक छोटा सा दल था, ताकि चीनी सेना को शक न हो.
महल के सामने मौजूद लाखों तिब्बतियों की भीड़ के बीच से यह दल निकल गया. आगे चलकर क्यीछू नदी की ओर जाने पर इस दल में कुछ और सदस्य जुड़ गए, जो दलाई लामा के परिजन थे. परम पावन दलाई लामा का 1959 में मसूरी, भारत में पहला प्रेस सम्मेलन, जिसमें उन्होंने 17 बिंदु समझौते को अस्वीकार किया जिस पर 23 मई 1951 को बीजिंग ने हस्ताक्षर करवाए थे.
हिमालय की कठिन यात्रा कर पहुंचे भारत
ल्हासा से निकलने के करीब तीन हफ्ते बाद 30 मार्च 1959 को दलाई लामा और उनका दल भारतीय सीमा पर पहुंचा. भारत सरकार पहले ही तिब्बती धर्मगुरु और उनके अनुयायियों को शरण देने के लिए सहमत हो चुकी थी. अरुणाचल प्रदेश के बोमदिला शहर में इस दल के ठहरने का इंतजाम किया गया. यहां कुछ दिन रहने के बाद दलाई लामा 20 अप्रैल को मसूरी पहुंचे और प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की. इस भेंट के दौरान तिब्बती शरणार्थियों के पुनर्वास पर विस्तृत चर्चा हुई. मसूरी में रहते हुए ही दलाई लामा ने चीन के साथ किए गए 17 बिंदुओं वाले समझौते को खारिज किया. इसके बाद उन्होंने तिब्बती निर्वासित सरकार के प्रमुख प्रशासनिक विभागों का गठन किया. 10 मार्च 1960 को दलाई लामा और उनके दल ने अस्थाई रूप से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला की ओर प्रस्थान किया.