सेंसर बोर्ड के प्रमुख के रूप में पहलाज निहलानी पहले ही बहुत सारे तुगलकी फैसले कर चुके हैं, लेकिन इस मामले को उनकी मूर्खताओं की अगली कड़ी के रूप में नहीं लिया जा सकता। इस मुद्दे के साथ एक ऐसी राजनीतिक प्रस्थापना जुड़ी हुई है, जिसकी मार आजकल कला-संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में दिखाई पड़ने लगी है। प्रस्थापना यह कि किसी क्षेत्र या जनसमूह से जुड़ी समस्या पर बात करना, उसे गंभीर चर्चा में लाना उसे बदनाम करने की साजिश में शामिल होना है।
किसी फिल्म ने पंजाब की ड्रग्स समस्या को उठाया तो वह पंजाब को बदनाम कर रही है। कहीं और हम देश की गरीबी या किसानों की आत्महत्या पर बात करें तो इसे देश को बदनाम करना माना जाएगा। जातिगत उत्पीड़न पर बात की जाए तो यह हिंदुत्व को बदनाम करने की कोशिश मानी जाएगी और ट्रिपल तलाक का मसला उठाया जाए तो इसे इस्लाम को बदनाम करने की साजिश करार दिया जाएगा। समकालीन विमर्श का अर्थ अगर सिर्फ हर चीज के बारे में अच्छी-अच्छी बातें करना हो जाए, भूल कर भी किसी समस्या, किसी की तकलीफ के बारे में बात न की जाए, तो क्या इसे एक लोकतांत्रिक समाज का लक्षण माना जाएगा?
यह भी कि समस्याओं को ढकते चले जाने का यह रवैया क्या हमें कभी उन समस्याओं के हल की ओर ले जाएगा? ‘उड़ता पंजाब’ को प्रदर्शित करने की कोई न कोई राह फिल्म के प्रोड्यूसर्स निकाल लेंगे, लेकिन सेंसर बोर्ड के मौजूदा चीफ और उन्हें इस जगह पर बिठाकर देश पर अपने वैचारिक आग्रह थोपने वाले उनके आका भारतीय समाज का जो नुकसान कर रहे हैं, उसकी चिंता समाज को ही करनी होगी।