अतीत में सूबे में भाजपा के नेताओं की बीच गुटबाजी और खींचतान सार्वजनिक हो चुकी है। कलराज मिश्र तो 2002 में सार्वजनिक रूप से इस बात को कह चुके हैं कि भाजपा के कुछ बड़े नेताओं में अब दूसरे की टांग खींचने की प्रवृत्ति काफी बढ़ गई है। ऐसे में भाजपा नेतृत्व को लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि इस प्रयोग से दूसरे उसे न बनने देने की कोशिश में ऐसा जुट जाएं कि सारा किया बेकार ही चला जाए।
लिहाजा ये लोग किसी चेहरे की मदद तो कर सकते हैं लेकिन इनका मौजूदा भूमिका छोड़कर उत्तर प्रदेश की चुनौती स्वीकार करना काफी मुश्किल है। रही बात विनय कटियार की तो पार्टी से राज्यसभा सदस्य होने के बावजूद पार्टी ने उन्हें लंबे समय से नेपथ्य में बैठा रखा है।
ऐसी स्थिति में उन्हें एकदम से मैदान में लाकर चमत्कार की उम्मीद करना बेकार है। बाकी जो नाम चर्चा में है उनमें उत्तर प्रदेश से संबंधित नामों में कोई ऐसा नहीं है जो अपनी छवि और पकड़ की बदौलत भाजपा की नैया पार लगा दे।
खुद मोदी का नाम व चेहरा भी काफी पहले से अलग-अलग कारणों से देश के आम लोगों के बीच अपना स्थान बना चुका था। इसलिए तब यूपी के नेताओं की अनदेखी चल गई। पर, भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में जो भी नाम चर्चा में है उसके साथ न तो मोदी जैसी उपलब्धियां हैं और न लोगों के बीच उसकी पहचान है।
ऐसे में अगर किसी कारण यूपी के प्रमुख नेता भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ गए तो काफी मुश्किल होगी। शायद यही वजह है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने असम के प्रयोग को यूपी में दोहराने के सवाल पर यह कहा कि उन्होंने अभी कुछ तय नहीं किया है।
यह हिचक भी प्रमाण
भाजपा के विधान परिषद में नेता हृदयनारायण दीक्षित भी कहते हैं कि कहां कैसे चुनाव लड़ना है? इस फैसले का अधिकार पार्टी के संसदीय बोर्ड को है। भाजपा के प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि इस तरह के फैसले रणनीतिक होते हैं। कब क्या करना है यह नेतृत्व ही तय करेगा। ऐसा लगता है कि चेहरे के सवाल पर पार्टी नेतृत्व फिलहाल यथास्थिति पर ही चलेगा। जिससे उसे सभी चेहरों का लाभ मिले। अगर कोई फैसला करना भी होगा तो चुनाव शुरू होने के आसपास ही होगा।
भाजपा भीतर एक वर्ग वरुण गांधी में मुख्यमंत्री बनने की संभावना और क्षमता देख रहा है। एक तो गांधी परिवार की पृष्ठभूमि और दूसरे हिंदुत्व पर आक्रामक भाषा, लोगों को लगता है कि वरुण को आगे करने से भी भाजपा को चुनाव में लाभ हो सकता है।भाजपा को इससे उस वोट का भी लाभ हो सकता है जो चेहरा और माहौल देखकर वोट डालने का फैसला करता है। पर, वरुण को लेकर पार्टी के भीतर हिचकिचाहट हो सकती है कि चेहरा घोषित होने के बाद वरुण सूबे के पार्टी नेताओं से कितना बनाकर चलेंगे और पार्टी के साथ तालमेल बैठाकर कितना काम करेंगे।
स्मृति ईरानी
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री के रूप में लोकसभा व राज्यसभा में कई मुद्दों पर विपक्ष पर उन्होंने जिस तरह तर्कों के साथ हमला बोला। साथ ही लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने जिस तरह अपने निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से नाता जोड़कर रखा है। इससे स्मृति ईरानी की एक लोकप्रियता बढ़ी है।
लोग मान रहे हैं कि प्रदेश में मायावती जैसे नेताओं से मुकाबला करने के लिए ईरानी का प्रयोग ठीक रहेगा। एक तो इससे भाजपा महिलाओं के बीच पकड़ व पैठ बना सकेगी। पर, स्मृति ईरानी की भूमिका का फैसला भी उन पर और राष्ट्रीय नेतृत्व पर निर्भर है।
महंत आदित्यनाथ
भाजपा अगर ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव मैदान में उतरना चाहेगी तो गोरक्षपीठ के महंत आदित्यनाथ भी एक चेहरा हो सकते हैं।
आदित्यनाथ की एक तो हिंदुत्ववादी छवि है। साथ ही उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में अपने कार्यों से पूर्वांचल में मल्लाह, निषाद, काछी, कुर्मी, कुम्हार, तेली जैसी अति पिछड़ी जातियों और धानुक, पासी, वाल्मीकि जैसी तमाम अति दलित जातियों में पकड़ मजबूत की है। दबंग छवि का होने के नाते लोग उन्हें पसंद भी करते हैं।
पर, भाजपा के भीतर इस बात को लेकर असमंजस हो सकता है कि उन्हें सीएम का चेहरा घोषित करने से उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण न हो जाए।
डॉ. दिनेश शर्मा
नौ साल से ज्यादा वक्त से राजधानी के महापौर हैं। भाजपा के सांगठनिक ढांचे में भी कई पदों पर काम कर चुके हैं। इस समय पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। आम लोगों के बीच उनकी छवि व साख ठीक-ठाक है। सरल हैं और लोगों को आसानी से उपलब्ध भी हैं।
प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं से भी उनका संपर्क व संवाद है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रिय लोगों में शुमार होते हैं। डॉ. शर्मा का नाम भी बतौर भावी मुख्यमंत्री उम्मीदवार चर्चा में शामिल रहा है। पर, सूबे के जातीय गणित उन पर पूरी तरह अनुकूल नहीं बैठ रही है।