Birthday Special

Birthday Special: एक रेशमी एहसास का नाम है ‘गुलज़ार’

नई दिल्‍ली: गुलज़ार एक रेशमी एहसास का नाम है, जिनकी कविता और गीतों की हरारत का एक सिरा उन अफसानों से होकर गुजरता है, जो विभाजन की त्रासदी से निकली हैं. उनकी कहानियों में ‘लकीरें’ दरअसल उसी दर्द का फलसफा बयां करती हैं, जिस तक़लीफ़ को लिए हुए  गुलज़ार साहब रातों रात दीना, पाकिस्तान अपनी ज़मीन छोड़कर चले आये थे. ‘माचिस’ का वो गीत याद कीजिये.. ‘छोड़ आये हम वो गलियां’.. ऐसे ही जज़्बातों से निकलकर गुलज़ार ने अपने शायर किरदार की वो रूह जमा की है, जो अपनी जलावतनी से और भी अधिक आग पाती है. एक बिसरा दिए गए शहर का ऐसा पीछे छूट गया सा बचपन जो गुलज़ार की हर दूसरी कविता में उन्मान की तरह आया है.'क़िताब', 'इजाज़त' और ' लिबास' जैसी फिल्मों के कथानकों की तरह जीवन में चले आये हुए रिश्तों के गहरे धागे आज कहीं दरक गए हैं , भारत और पाकिस्तान की सरहदों पर रची गयीं नो मैंन्स लैंड की अनेकों कहानियां आज अधूरी छूट गईं हैं, जिनकी ख़ातिर एक शायर के भीतर का अफसानानिगार वैसे ही तड़पता है जैसे गीतों के पतंग की डोर से कटा, कहानियों का कोई सूफ़ी दरवेश. आप 'यार जुलाहे' से कुछ अशआर पढ़कर इस बात की तस्दीक़ कर सकते हैं.  'राख को भी कुरेद कर देखो, अब भी जलता हो कोई पल शायद, कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाए, कितना अरसा हुआ किसी कंदील पर जलती रोशनी रखे...'  यह भी पढ़ें: गीत लिखना मेरा पेशा है, लेकिन कविता मेरे जीवन का वृतान्त है: गुलजार  प्रेम, दोस्ती, विश्वास, रिश्ते, अधूरेपन, दर्द, रूहानी एहसास, पीड़ा, मनुहार, उदासी, भय , उत्साह, उमंग, उल्लास, तल्लीनता, सभी तरह के मनोभावों के कवि के रूप में गुलज़ार को पहचान मिली है. वो अपने शायर का एक सिरा पकड़कर दूसरे से मुख़ातिब रह सकते हैं. वो विचार के इस या उस तरफ़ खड़े न भी हों, तो भी गहरे मानवीय सरोकारों से हम सबको भीगते रहने के सौजन्य रच सकते हैं. उनका होना इसी अर्थ में एक शायर, गीतकार, लेखक और अफसाना लिखने वाले के किरदार में अत्यंत प्रमाणिक बन जाया करता है.    इसी एहसाह के तहत यह जज्बा भी कायम रहता है कि गीत लिखते वक्त उनके शायर से मुलाक़ात होती है, तो अफसाने के समय कहीं गहरे गीतकार गुनगुना रहा होता है. हर उम्र की दहलीज़ पर, वय को परे खिसकाते हुये और बिल्कुल नयी पीढ़ी से उसकी ही शब्दावली में सम्वाद को तत्पर गुलज़ार साहब की कलम ये कहने का हौसला रखती है..  ऐसी उलझी नज़र उनसे हटती नहीं दांत से रेशमी डोर कटती नहीं.. उम्र कब की बरस के सुफैद हो गयी कारी बदरी जवानी की छटती नहीं... वल्लाह ये धड़कन बढ़ने लगी है चेहरे की रंगत उड़ने लगी है डर लगता है तन्हा सोने में जी दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी...    लेखक गुलजार पर 'यार जुलाहे...' नाम से किताब लिख चुके हैं और राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता किताब लता सुर गाथा के लेखक हैं.   डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

गुलज़ार की अधिकांश कहानियां हों या फ़िल्मी गीतों की अंतर्कथाओं की पड़ताल, हर जगह छीजते जाते समय और समाज से तालमेल बनाने की कोशिश ही जैसे उनकी लेखकी का सबसे ज़रूरी कर्तव्यबोध रही है. फिर वो सारी जद्दोजहद गीतों और कहानियों की अदायगी से आवाज़ पाती है. उनकी इस तरह की महत्वपूर्ण कहानियों में ‘ रावी पार’, ‘खौफ़’,’ फसल’, ‘बंटवारा’ और ‘दीना’ को याद किया जा सकता है.

गुलज़ार लिखते हैं, ‘ज़िक्र जहलम का है, बात है दीने की, चांद पुखराज का, रात पश्मीने की…’  ऐसी ही कहानियों से होते हुए वो समाज की सबसे दुखती नस पर अपने कलम की धार रख देते हैं, जो आम जीवन से भी कई दफा नज़रंदाज़ रहता आता है. दुख के इस महासमुद्र से जूझते हुए गुलज़ार का शायर कई मर्तबा फ़िल्म गीतों की उस संवेदना में उतरता है, जिसके लिए प्रेम को प्रेम की तरह नहीं, बल्कि देह के पैरहन की मानिंद दुख सिमेटने के लिए रचा गया है. इन गीतों से इस बात को समझा जा सकता है…

वोडाफोन और एयरटेल लेकर आया धमाकेदार ऑफ़र, भूल जाएंगे आप भी जियो…
‘ हमने देखी है उन आखों की महकती खुशबू
 हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो
 सिर्फ़ एहसास है इसे छू के महसूस करो
 प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो…’

‘क़िताब’, ‘इजाज़त’ और ‘ लिबास’ जैसी फिल्मों के कथानकों की तरह जीवन में चले आये हुए रिश्तों के गहरे धागे आज कहीं दरक गए हैं , भारत और पाकिस्तान की सरहदों पर रची गयीं नो मैंन्स लैंड की अनेकों कहानियां आज अधूरी छूट गईं हैं, जिनकी ख़ातिर एक शायर के भीतर का अफसानानिगार वैसे ही तड़पता है जैसे गीतों के पतंग की डोर से कटा, कहानियों का कोई सूफ़ी दरवेश. आप ‘यार जुलाहे’ से कुछ अशआर पढ़कर इस बात की तस्दीक़ कर सकते हैं.

‘राख को भी कुरेद कर देखो,
अब भी जलता हो कोई पल शायद,
कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाए,
कितना अरसा हुआ किसी कंदील पर जलती रोशनी रखे…’

प्रेम, दोस्ती, विश्वास, रिश्ते, अधूरेपन, दर्द, रूहानी एहसास, पीड़ा, मनुहार, उदासी, भय , उत्साह, उमंग, उल्लास, तल्लीनता, सभी तरह के मनोभावों के कवि के रूप में गुलज़ार को पहचान मिली है. वो अपने शायर का एक सिरा पकड़कर दूसरे से मुख़ातिब रह सकते हैं. वो विचार के इस या उस तरफ़ खड़े न भी हों, तो भी गहरे मानवीय सरोकारों से हम सबको भीगते रहने के सौजन्य रच सकते हैं. उनका होना इसी अर्थ में एक शायर, गीतकार, लेखक और अफसाना लिखने वाले के किरदार में अत्यंत प्रमाणिक बन जाया करता है.

इसी एहसाह के तहत यह जज्बा भी कायम रहता है कि गीत लिखते वक्त उनके शायर से मुलाक़ात होती है, तो अफसाने के समय कहीं गहरे गीतकार गुनगुना रहा होता है. हर उम्र की दहलीज़ पर, वय को परे खिसकाते हुये और बिल्कुल नयी पीढ़ी से उसकी ही शब्दावली में सम्वाद को तत्पर गुलज़ार साहब की कलम ये कहने का हौसला रखती है..

ऐसी उलझी नज़र उनसे हटती नहीं
दांत से रेशमी डोर कटती नहीं..
उम्र कब की बरस के सुफैद हो गयी
कारी बदरी जवानी की छटती नहीं…
वल्लाह ये धड़कन बढ़ने लगी है
चेहरे की रंगत उड़ने लगी है
डर लगता है तन्हा सोने में जी
दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी…

लेखक गुलजार पर ‘यार जुलाहे…’ नाम से किताब लिख चुके हैं और राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता किताब लता सुर गाथा के लेखक हैं. 

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