हर एक तीर्थ स्थल का अपना-अपना एक रिवाज है जिसे हम परम्परा भी कहते है. साथ ही साथ हर व्यक्ति के द्वारा देवी, देवताओं को मानने की अपनी एक अलग परंपरा होती है. व्यति किसी न किसी तरह से देवी देवता को खुश करना चाहता है. कुछ लोग पूजा-पाठ से तो कुछ लोग जीव की बलि देकर इन्हे खुश करना चाहते है. ये सब तो अपने ही मन के विचार है. क्योकि कोई भी देवी, देवता बलि नहीं मांगते वे तो खुद जीव को इस संसार रूपी सागर में भेजते है. पर कुछ स्थान ऐसे है जहां लोगों की परम्परा आज भी चली आ रही है. इन्ही में एक हिमाचल प्रदेश के सराहन में भीमाकली मंदिर है.
बताया जाता है कि देवी सती का बायाँ कान इस हिमाचल प्रदेश के सराहन में गिरा था इसलिए यह स्थान शक्तिपीठ कहलाता है. लोगो का मानना है की इस मंदिर का निर्माण लगभग 800 वर्ष पूर्व हुआ था. और उसके पश्चात इस मंदिर परिसर के मध्य एक नवीन मंदिर का निर्माण 1943 में किया गया. इस मंदिर में देवी भीमाकली के दो रूपों के दर्शन देखने को मिलते है. एक रूप में ये देवी कुंवारी और एक रूप में ये सुहागन के रूप में दिखाई देती है. इसके अतिरिक्त इस स्थान में रघुनाथ और भैरों के नरसिंह तीर्थ को समर्पित दो अन्य मंदिर भी स्थित हैं. बताया जाता है कि इस मंदिर के दरवाजे केवल सुबह और शाम ही खुलते है और तभी देवी माँ के दर्शन हो पाते है .
इस मंदिर का निर्माण तिब्बती शैली को लेकर किया गया है. इस मंदिर पर बौद्ध और हिंदू धर्मों का प्रभाव है. उनसे जुड़े तथ्य भी मिलते है. इस मंदिर की शोभा भक्तों को उत्साहित करती है. इस मंदिर में गोल्डन टॉवर, पगोडा और एक नक्काशीदार चांदी का दरवाजा है. लोगों द्वारा मान्यता के रूप में प्रत्येक वर्ष दशहरे पर यहां पशु बलि उत्सव बड़े पैमाने पर मनाते है. और इस उत्सव को देखने के लिए दूर दूर से लोग आते है. पशु बलि रूप में उत्सव मनाना अपनी एक परम्परा है इस तरह से उत्सव मनाने के लिए कोई धर्म ग्रन्थ या देवी देवता नहीं कहते है.