बिहार कांग्रेस का विवाद राहुल गांधी के दर पर पिछले 2 दिनों से चल रहा है. सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी से बातचीत में विधायकों ने कांग्रेस पार्टी के भविष्य की बेहतरी की बातें रखीं. अपना रोड मैप भी बताया लेकिन इस मुलाकात के दौरान कुछ विधायकों ने अकेले चलने और लालू प्रसाद का साथ छोड़ने की बात कही. इसी बात पर कांग्रेस में बवाल बढ़ गया. राहुल गांधी से मिलने गए कुछ विधायकों ने कांग्रेस के साथ रहने और लालू के साथ न जाने की बात कही.बड़ी खबर: मोदी सरकार ने दिया आदेश, कहा- अखिलेश राज में बांटी गई स्कॉलरशिप की होगी जांच
इस विरोध से ऐसे सवाल खड़े हो गए कि आखिर लालू प्रसाद यादव से नाराजगी की बात कहां से आ गई. आलाकमान ने पिछले एक हफ्ते में 27 विधायकों में से दो तिहाई यानी 18 के अलग धड़ा न बना लेने पर नजर बनाए रखी और उस पर रोक लगाई. 18 विधायक टूटने की स्थिति में उन्हें मान्यता भी मिल जाएगी और पार्टी की फजीहत भी होगी. ऐसे में गुलाम नबी आजाद और अहमद पटेल ने ऐसी कोशिशें जारी रखीं कि दो तिहाई विधायक न टूटें.
इस बीच ऐसे सवाल उठे कि आखिर बिहार प्रदेश कांग्रेस में लालू विरोध के नाम पर चलाए जाने वाले हस्ताक्षर अभियान के क्या मायने हैं? इस पूरी कवायद के पीछे कौन है और इसे क्यों अंजाम दिया गया. आलाकमान के करीबी सूत्रों के मुताबिक तीन बार ऐसे मौके आए कि कांग्रेस को नीतीश के खिलाफ एकजुट दिखना पड़ा. पहला मौका राष्ट्रपति चुनाव में आया तब प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी ने सभी 27 कांग्रेसी विधायकों को नीतीश से अलग मीरा कुमार के हक में मतदान करवाया. दूसरा मौका उपराष्ट्रपति चुनाव में आया जब नीतीश कांग्रेस का साथ छोड़ चुके थे लेकिन तब भी सभी 27 विधायक नीतीश के खिलाफ गोपाल कृष्ण गांधी के पक्ष में थे. बड़ा मौका तब था जब नीतीश की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मतदान हुआ. कांग्रेस के सभी विधायकों ने लालू की आरजेडी के साथ मिलकर नीतीश के खिलाफ मतदान किया।
यह सब होने के बाद कांग्रेस आलाकमान ने तय कर लिया कि अब भविष्य में मौके के हिसाब से लालू के साथ गठबंधन करना होगा. सब कुछ सही चल रहा था लेकिन अचानक ही खबर आयी कि बिहार प्रदेश कांग्रेस में एक हस्ताक्षर अभियान चला है. इसमें कांग्रेस के साथ लालू के दुर्व्यवहार का जिक्र है. ऐसे में कांग्रेस आलाकमान फैसला करे. बात बड़ी सीधी थी कि कांग्रेस लालू के साथ जा चुकी थी. नीतीश बीजेपी से हाथ मिला चुके थे. ऐसे में लालू के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाना क्या कहता है? क्या कांग्रेस को बीजेपी की गोद में जा बैठे नीतीश कुमार के साथ जाना चाहिए.
कांग्रेस तोड़ने की थी कोशिश!
सूत्रों की माने तो कोशिश दो तिहाई यानी 18 विधायकों को तोड़ने की थी. मामला 13-14 तक पहुंच भी गया था. इसी बीच बात फैल गई. सारे समीकरणों और सबूतों के मद्देनजर कांग्रेस आलाकमान ने फैसला किया कि 4 साल से प्रदेश अध्यक्ष और नीतीश सरकार में मंत्री रहे नीतीश के करीबी अशोक चौधरी को जाना होगा.
बातें ऐसी भी सुनने में आईं कि कांग्रेस के भीतर सांगठनिक चुनाव होने हैं. राहुल गांधी को अध्यक्ष बनना है. उस प्रक्रिया के तहत अगले एक डेढ़ महीने में बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष को बदल दिया जाए. बात यह भी हुई कि उनके 4 साल का कार्यकाल भी पूरा हो गया है.
इस बीच ऐसे भी सवाल उठे कि जब प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी रहेंगे और साथ में बिहार प्रदेश में संगठन के चुनाव होंगे तो अशोक चौधरी अपने कई लोगों को जिला अध्यक्ष बनवा देंगे. ऐसे में अगर भविष्य में अशोक चौधरी ने कांग्रेस से दगा किया तो उनके नियुक्त किए गए कई जिलाध्यक्ष कांग्रेस को झटका दे सकते हैं. ऐसे में पार्टी ने जल्द से जल्द उन्हें इस पद से हटाने का निर्णय लिया है.
ऐसे भी सवाल उठे कि अशोक चौधरी भले ही आज आरजेडी और लालू विरोध की बात कर रहे हों मगर वे भूल गए कि कांग्रेस के चार विधायक होने पर वे आरजेडी की मदद से ही एमएलसी बने थे. पार्टी ने विधानसभा का चुनाव हो या उसके पहले लोकसभा का चुनाव भी साथ ही लड़ा है. यही वजह रही कि कांग्रेस में विवाद बढ़ गया है. भले ही कांग्रेस के विधायक न टूटें लेकिन लालू विरोध की वजह से पार्टी में सबकुछ सही तो नहीं ही दिखाई दे रहा है.