पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पुराणों के मुताबिक, समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से कल्पवृक्ष भी एक था। इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह
यह एक परोपकारी मेडिस्नल-प्लांट है अर्थात दवा देने वाला वृक्ष है। इसमें संतरे से 6 गुना ज्यादा विटामिन ‘सी’ होता है। गाय के दूध से दोगुना कैल्शियम होता है और इसके अलावा सभी तरह के विटामिन पाए जाते हैं। इसकी पत्ती को धो-धाकर सूखी या पानी में उबालकर खाया जा सकता है। पेड़ की छाल, फल और फूल का उपयोग औषधि तैयार करने के लिए किया जाता है।
बताया जाता है कि समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ में कर दी थी। कल्पवृक्ष के विषय में यह भी कहा जाता है कि इसका नाश कल्पांत तक नहीं होता। इस्लाम के धार्मिक साहित्य में भी ‘तूबा’ नाम से ऐसे ही एक वृक्ष का वर्णन मिलता है। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच ऐसा कोई वृक्ष था और क्या आज भी है? प्राप्त जानकारी के मुताबिक, ओलिया कस्पीडाटा इस वृक्ष का वैज्ञानिक नाम है। इसे बाओबाब भी कहते हैं। भारत में इसका वानस्पतिक नाम बंबोकेसी है। यह यूरोप के फ्रांस व इटली में बहुतायत मात्रा में पाया जाता है।
यह दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में भी पाया जाता है। 1775 में इसे अफ्रीका के सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नाम अडनसोनिया टेटा रखा गया। कल्पवृक्ष का फल आम, नारियल और बिल्ला का जोड़ है अर्थात यह कच्चा रहने पर आम और बिल्व तथा पकने पर नारियल जैसा दिखाई देता है लेकिन यह पूर्णत: जब सूख जाता है तो सूखे खजूर जैसा नजर आता है। हमारे दैनिक आहार में प्रतिदिन कल्पवृक्ष के पत्ते मिलाएं 20 प्रतिशत और सब्जी (पालक या मैथी) रखें 80 प्रतिशत। आप इसका इस्तेमाल धनिए या सलाद की तरह भी कर सकते हैं। इसके 5 से 10 पत्तों को मैश करके परांठे में भरा जा सकता है।