लखनऊ। पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव के लिए राजनैतिक बिसातें बिछ चुकी हैं। सभी दलों ने अपनी तैयारियां लगभग पूरी कर ली हैं। राजनैतिक दलों का मानना है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव फरवरी में भी हो सकते हैं, इसलिए उत्तर प्रदेश सरकार ने लेखानुदान के लिए 21 दिसम्बर को विधानसभा का सत्र भी बुला लिया है। इससे स्पष्ट है कि 21 दिसम्बर के बाद कभी भी चुनाव की अधिसूचना जारी हो सकती है।
विधानसभा के चुनाव
उत्तर प्रदेश में चुनाव के लिए सभी दल तैयार हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) इनमें सबसे आगे चल रही है। बसपा जल्द से जल्द चुनाव चाहती है। इसी रणनीति के तहत बसपा अध्यक्ष मायावती काफी मुखर हो गई हैं और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर रखकर नियमित रूप से अपनी प्रतिक्रियाएं दे रही हैं।
बसपा का मानना है कि प्रदेश में जो हालात हैं और मोदी की नोटबंदी नीति से जो जन आक्रोश दिख रहा है, जल्द चुनाव से वह उसका सीधा लाभ ले सकती है। फिलहाल बसपा की नजर में समाजवादी पार्टी कमजोर हालत में हैं। पारिवारिक कलह का मामला अभी गरम है और कांग्रेस से सपा का गठबंधन अभी परवान नहीं चढ़ पाया है। ऐसे में यह संदेश मुसलमानों में जा सकता है कि भाजपा को हराने के लिए बसपा के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है और इससे बसपा फायदे में रह सकती है।
कांग्रेस की तो किसी भी तरह की तैयारी नहीं दिख रही है। वह एक तरह से आश्रय ढूंढ रही है। फिलहाल छोटे दलों के साथ गठबंधन करके वह सपा के साथ गठबंधन बनाने की फिराक में है। कांग्रेस के पास अच्छे जिताऊ प्रत्याशियों का टोटा है और राष्ट्रीय स्तर पर भीड़ खींचने वाली कोई शख्सियत उसके पास नहीं है।
बिहार की तर्ज पर कांग्रेस किसी के भरोसे विधानसभा चुनाव में उतरना चाहती है, ताकि उसके वोट बैंक का लाभ उठाकर अपनी सीटें बढ़ा सके। एक तरह से कहा जाए कि प्रशांत किशोर को जिस रणनीतिकार के रूप में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में उतारा था, वह उद्देश्य पूरा होता नहीं दिख रहा है।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) यह समझ नहीं पा रही है कि नोटबंदी का उसे लाभ मिलेगा या नुकसान। पार्टी में कुछ लोगों का मानना है कि चुनाव कुछ समय बाद हों, ताकि स्थितियां सुधरें और लोगों का आक्रोश कम हो जाए। अभी पूरा देश परेशान है और इसका नुकसान भाजपा को उठाना पड़ेगा।
कुछ राजनीतिज्ञों का मानना है कि अगर उप्र में चुनाव देर से होंगे और चार राज्यों में हुए चुनाव के परिणाम भाजपा के विरुद्ध गए तो उसे ही नोटबंदी के खिलाफ लोगों का जनादेश मान लिया जाएगा और उप्र में उसका स्पष्ट प्रभाव दिखेगा।
हालांकि, भाजपा के कुछ रणनीतिकारों का यह भी मानना है कि नोटबंदी का असर अप्रैल तक पूरी तरह खत्म हो जाएगा और केंद्र गरीबों के लिए बड़ी योजनाओं की घोषणा कर उसका लाभ उठा सकता है। इस बार फरवरी में बजट पेश होगा। केंद्र सरकार ने संकेत भी दिया है कि इस बार बजट में नोटबंदी के बाद सरकार को हुए लाभ को गरीबों तक पहुंचाने के लिए कुछ खास किया जा सकता है।
अगले कुछ महीने में उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक केंद्रीय योजनाओं की शुरुआत कर सकती है, जिसमें मोदी भाग ले सकते हैं। उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा और पंजाब में बेहतर प्रदर्शन हुआ तो इसका बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक लाभ हो सकता है। लेकिन, नोटबंदी का ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान कोई भी नहीं लगा पा रहा है।
सिर्फ सपा को चुनाव की जल्दी नहीं है। सपा चाहती है कि चुनाव अप्रैल में हो ताकि अधिक से अधिक समय तक सत्ता का सुख हासिल किया जा सके और अपने कामों को दिखाने का और मौका मिल जाए। अभी तो प्रदेश सरकार आधी-अधूरी योजनाओं का उद्घाटन करके अपनी उपलब्धियों की गाथा बखान रही है। चुनाव में जितना विलंब होगा, उतनी ही विकास गाथा आगे बढ़ेगी। साथ में तब तक लोग पार्टी के भीतर की कलह को भी भूल चुके होंगे और हो सकता है कि अन्य दलों से गठबंधन भी कोई रूप ग्रहण कर ले, जिससे वोट प्रतिशत में वृद्धि हो जाए।
फिलहाल उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों को लेकर चुनाव आयोग ने खाका तैयार कर लिया है। जानकारी के मुताबिक, उप्र में चुनाव पांच से सात चरणों में हो सकता है। चुनाव आयोग ने उप्र माध्यमिक शिक्षा परिषद को साफ शब्दों में कह दिया है कि वह बोर्ड परीक्षा की तारीखें घोषित करने से पहले प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के साथ मंथन अवश्य कर ले। उप्र बोर्ड ने हाई स्कूल और इंटर की परीक्षाओं के लिए 16 फरवरी से अपना कार्यक्रम घोषित किया था, जिस पर चुनाव आयोग ने पाबंदी लगा दी है। इससे स्पष्ट है कि आयोग ने अभी यह तय नहीं किया है कि चुनाव बाद में होंगे, इसलिए वह फरवरी की तिथियों को अपने पास फिलहाल सुरक्षित रखना चाहता है।