सभी दल रिझाने की कोशिश में जुटे हैं, लेकिन चुनाव में अनुसूचित जातियां किस दल के पक्ष में गोलबंद होंगी, यह नतीजे से ही जाहिर होगा। उन्हें रिझाने मे जदयू दूसरे दलों से आगे चल रहा है। उसने प्रमंडल स्तर पर सम्मेलनों का आयोजन कर इस वर्ग के लोगों को बता दिया है कि वोट देने से पहले सोच लेंगे कि नीतीश कुमार की सरकार ने उनके लिए क्या सब किया है।
गंभीरता इससे भी समझा जा सकता है कि मगध प्रमंडल के सम्मेलन में खुद नीतीश पहुंचे। वही मगध, जहां के जीतनराम मांझी को नीतीश ने अपनी कुर्सी सौंप दी थी।
इससे पहले के प्रमंडलीय सम्मेलनों में मुख्य वक्ता की हैसियत में सांसद आरसीपी सिंह रहे। अभियान की कमान भी उनके ही हाथ में है। भीड़ के लिहाज से देखें तो अपवाद को छोड़ हर जगह ठीक ठाक थी। दरभंगा में कम भीड़ जुटी तो इसलिए कि आयोजकों ने पंडाल का इंतजाम नहीं किया था। तीखी धूप से बचने के लिए छांव की तलाश में भीड़ छितरा गई थी।
खैर, आरसीपी और दूसरे वक्ताओं का जोर इस पर था कि नीतीश ने अनुसूचित जातियों को कहां-कहां आरक्षण का लाभ दिया। खासतौर पर पंचायती राज, स्थानीय निकाय, न्यायपालिका और आउटसोर्सिंग वाली नौकरियों में आरक्षण सुविधा की चर्चा हुई।
कांग्रेस के पराभव के बाद बहुत दिनों तक इस वर्ग का वोट लालू प्रसाद को मिलता रहा। बाद के दिनों में इस वर्ग के सबसे बड़े नेता के तौर पर रामविलास पासवान उभरे। लंबे समय तक राजद के साथ रहे। इन दिनों एनडीए में हैं।
2015 के विधानसभा चुनाव में जीतनराम मांझी को लगा कि एकबार सीएम बन गए, इसलिए अनुसूचित जाति के सबसे बड़े नेता हो गए। नीतीश ने अनुसूचित जाति के वोटरों की दुविधा को समझ लिया था।
दलित-महादलित की दो श्रेणी बनाकर उन्होंने अनुसूचित जाति के बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ लिया। यह जुड़ाव वोट में भी परिलक्षित हुआ, जब 2009 में रामविलास पासवान लोकसभा का चुनाव हार गए। हालांकि उनके पास 2004 के चुनाव की शानदार उपलब्धि भी है।
इस समय एकबार फिर प्राय: सभी राजनीतिक दल अनुसूचित जाति के वोट के लिए दूसरे दलों के नेताओं को आउटसोर्स कर रहे हैं या उनके साथ गठबंधन कर रहे हैं। सबसे अलग नीतीश इस वोट बैंक को लेकर आत्मनिर्भर रहना चाहते हैं।
2014 के चुनाव नतीजों को अगर नरेंद्र मोदी की लहर मान लें तो 2015 का विधानसभा चुनाव अनुसूचित जाति के बड़े नेताओं की जमीनी पकड़ के लिहाज से परीक्षण का दौर था। पासवान और मांझी एनडीए के साथ थे। किसी सुरक्षित सीट पर लोजपा की जीत नहीं हुई। मांझी दो सीटों पर खड़े थे। एक पर हार हुई।
दूसरी तरफ नीतीश कुमार को सीएम बनाने की घोषणा के साथ मैदान में गया महागठबंधन 38 में से 28 सुरक्षित सीट जीत गया। अभी राजद और जदयू के बीच यह विवाद चल ही रहा है कि वह जीत किसके चलते हुई थी।
अगले साल लोकसभा चुनाव में एकबार फिर परीक्षण होगा कि आखिर अनुसूचित जाति के वोटर किसे अपना सबसे करीबी मानते हैं। जदयू उसी की तैयारी कर रहा है।