पिछले हफ्ते बारहवीं के रिजल्ट्स आए और फिर दसवीं के. चारों तरफ शोर सुनाई देने लगा-मेरे 95 परसेंट नंबर आए, मेरे 96, मेरे बेटे की 10 सीजीपीए आई तो मेरी बिटिया की साढ़े नौ. हर तरफ बधाइयों का दौर, हर तरफ वाहवाहियों का शोर. लेकिन दिल खुश कर देने वाले इसी शोर के बीच कुछ एक ऐसी खबरें भी आईं जो दिल दुखाने वाली थीं. किसी शहर में बारहवीं की छात्रा का फेल होने के बाद आत्महत्या कर लेना और किसी शहर में दसवीं के छात्र का कम नंबर आने के बाद घर छोड़ कर चले जाना. सवाल उठता है कि आखिर क्यों हमारे नौनिहाल कम नंबर लाने या स्कूली परीक्षा में फेल होने के बाद ये सोचने लगते हैं कि अब वह अपने परिवार, समाज या इस दुनिया को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे? क्या सिर्फ ज्यादा नंबरों से पास होना ही सिर उठा कर चलने का पैमाना है? और कहीं इस की वजह खुद उनके परिवार वाले तो नहीं हैं?
संयोग से दसवीं के रिजल्ट के अगले ही दिन टी.वी. पर आमिर खान वाली फिल्म ‘3 इडियट्स’ आ रही थी. शायद ही कोई स्टूडेंट या पेरेंट्स होंगे जिन्होंने यह फिल्म न देखी हो. यह फिल्म बार-बार यह सीख देती है कि नंबरों के नहीं, ज्ञान के पीछे भागिए. जिस काम में मन हो, उसे कीजिए. एक खराब इंजीनियर बनने की बजाय अगर आप एक अच्छे फोटोग्राफर बन सकें तो बेहतर होगा. इससे पहले आमिर की ही फिल्म ‘तारे जमीन पर’ भी पेरेंट्स से बड़े साफ-स्पष्ट शब्दों में यह कह रही थी अगर रेस ही लगानी है तो घोड़े दौड़ाओ, बच्चे क्यों पैदा करते हो.
जब ये फिल्में आई थीं उन दिनों कुछ समय तक इन बातों पर समाज के विभिन्न वर्गों में काफी बहस-मुबाहिसे भी हुए थे लेकिन उससे हुआ क्या? क्या हम लोगों ने इस तरह की सीखों को फिल्मी पर्दे से अपने जीवन में उतरने दिया? शिक्षा के बाजार में जो घुड़दौड़ लगी हुई है, 90 परसेंट से कम नंबर लाने वाले बच्चे को खुद उसके सगे मां-बाप जिस नजर से देख रहे हैं, उसे देखते हुए लगता तो नहीं है कि हम इन फिल्मों से कुछ भी सीखने को तैयार हैं.
ऐसा नहीं है कि कम नंबर लाने वाले सारे स्टूडेंट्स एकदम बेकार साबित होंगे और यह दुनिया उन्हें आगे नहीं बढ़ने देगी. ब्रैंडमॉमी मार्ककॉम की मैनेजिंग डायरेक्टर और मनोविश्लेषक नेहा शर्मा कहती हैं, ‘दिक्कत दरअसल पेरेंट्स के साथ ज्यादा है. अपने बच्चों पर ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने का दबाव डालने वाले ज्यादातर पेरेंट्स वही हैं जो खुद इतने ज्यादा नंबर कभी नहीं ला पाए और उन्हें लगता है कि हम जिंदगी की रेस में औरों से पीछे रह गए.
जबकि सच यह है कि उन्होंने भी जिंदगी में काफी कुछ हासिल किया और अपने बच्चों को भी वे एक अच्छी परवरिश दे पा रहे हैं लेकिन उनका मन उन्हें नंबरों के मकड़जाल से बाहर निकलने ही नहीं दे रहा. एक अनजाना-सा डर उन्हें हमेशा सताए रहता है कि अगर नंबर कम आए तो अच्छा कॉलेज नहीं मिलेगा, अच्छा सब्जैक्ट नहीं मिलेगा, अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और फिर अच्छा पति या अच्छी पत्नी नहीं मिलेगी. यही डर वह अपने बच्चों में ट्रांस्फर करते रहते हैं और नतीजा यह होता है कि उनकी उम्मीदों से कम नंबर लाने वाले बच्चों को अपना जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है.’ नेहा ऐसे बच्चों से साफ कहती हैं, ‘चार-पांच विषयों में कम नंबर लाने से आप नाकारा साबित नहीं हो जाते. अपने भीतर झांकिए, अपनी क्षमताओ को तोलिए और फिर अपने सपनों को उड़ान दीजिए, मुमकिन है कामयाबी किसी दूसरे आसमान में आपका इंतजार कर रही हो.’
नंबर गेम को लेकर एक दिक्कत और भी देखने को मिलती है कि बेटियों से ज्यादा उम्मीदें बेटों से की जाती हैं. यह माना जाता है कि बुढ़ापे का सहारा तो उसी को बनना है, बेटी तो शादी करके अपने घर चली जाएगी. इसी विषय पर एक शॉर्ट फिल्म बना चुकीं फिल्ममेकर शीनम कालरा का कहना है, ‘मैं ऐसे पेरेंट्स से कहना चाहूंगी कि लड़का हो या लड़की, उन्हें वह करने दीजिए, जो वे करना चाहते हैं क्योंकि कुछ नहीं पता कि कल को उनमें से कौन आपका नाम रोशन करेगा.’ शीनम खुद अपनी मिसाल देते हुए बताती हैं कि कैसे उन्हें अपने घर में प्रोत्साहित किया गया और आज वह कई तरह के कामों को सफलता से कर रही हैं.
तो दोस्तों, जिंदगी को रेस मत समझिए क्योंकि नंबरों के पीछे दौड़ने वाले लोग अक्सर ‘3 इडियट्स’ के चतुर साबित होते हैं जो ऊंचा पद और ज्यादा पैसा तो कमा गए लेकिन जिंदगी भर एक अनजानी रेस में दौड़ते रहे. जबकि ज्ञान को हासिल करने वाले फिलहाल भले ही ईडियट लगें लेकिन असल नाम वही कमाते हैं. इसलिए चतुर नहीं, इडियट बनिए, कामयाबी झक मार कर आपके पास आएगी.