आपकी भक्ति कहीं सौदा तो नहीं?

निन्यानवे फीसदी प्रार्थनाओं में क्या होता है? मुझे यह दे दो, मुझे वह दे दो। मुझे बचा लो, मेरी रक्षा करो। यह भक्ति नहीं है, यह सौदा है। आप एक मूर्खतापूर्ण सौदा करने की कोशिश में लगे हैं।

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आपकी भक्ति कहीं सौदा तो नहीं?अंग्रेजी में ‘डिवोशन” (भक्ति) शब्द डिसोल्यूशन शब्द से बना है जिसका अर्थ है- विसर्जन। जब हम भक्त कहते हैं, तो भक्त का अपना कोई मकसद नहीं होता। उसका एकमात्र मकसद उस चीज में विसर्जित हो जाना होता है जिसकी वह भक्ति कर रहा है, बस।
 
वह अच्छी तरह से रहने के बारे में नहीं सोच रहा है। वह धनी होने के बारे में भी नहीं सोच रहा है। वह स्वर्ग जाने के बारे में भी नहीं सोच रहा है। मान लीजिए वह भगवान शिव का भक्त है। इसका मतलब है कि वह बस शिव में ही विलीन हो जाना चाहता है, वह शिव में ही समाप्त हो जाना चाहता है। बस यही है, जो वह जानता है। क्या आप ऐसे हैं?

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आपके लिए तो भक्ति एक मुद्रा यानी ‘करेंसी” की तरह है। भक्ति आसान जीवन जीने के लिए एक मुद्रा की तरह है। इस दुनिया में होने वाली प्रार्थनाओं को देखिए। निन्यानवे फीसदी प्रार्थनाओं में क्या होता है? मुझे यह दे दो, मुझे वह दे दो। मुझे बचा लो, मेरी रक्षा करो। यह भक्ति नहीं है, यह सौदा है। आप एक मूर्खतापूर्ण सौदा करने की कोशिश में लगे हैं।
 
तो अगर आप वास्तव में भक्त बनना चाहते हैं और भक्ति के जरिए उस परम चेतना तक पहुंचना चाहते हैं तो आपका अपना कोई मकसद नहीं होगा, कोई एजेंडा नहीं होगा। आप नहीं चाहेंगे कि जीवन वैसे चले जैसा आप चाहते हैं। आप उसके साथ विलीन हो जाना चाहेंगे, बस। अगर आप ऐसे हैं तो भक्ति आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का सबसे तेज तरीका है।
 
लेकिन आज जिस तरह की शिक्षा व्यवस्था है और जिस तरह के तार्किक दिमाग लोगों के पास हैं, भक्ति का तो सवाल ही नहीं उठता। क्या आपको लगता है कि आप किसी के प्रति पूरी तरह से समर्पित होने में सक्षम हैं? नहीं न? तो इस बारे में बात मत कीजिए। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आपमें भक्ति का अंश बिल्कुल है ही नहीं। आपके भीतर जितनी भक्ति है उससे हो सकता है कुछ मकसद हल हो जाए। आप ऐसी भक्ति से छोटे-मोटे काम कर सकते हैं, बस।
 
आप मंदिर में दस मिनट के लिए बैठते हैं और प्रार्थना करते हैं, ‘हे शिव मुझे बचाइए।” इसके बाद आपको अपने भीतर इतना भरोसा आ जाता है कि आप अगले चौबीस घंटे आराम के साथ बिता सकें। ऐसी भक्ति आपका इतना काम कर सकती है, लेकिन यह आपको उस परम तक नहीं ले जा सकती, क्योंकि आपकी बुद्धि पूरी तरह से किसी के सामने झुकने को तैयार नहीं है।
 
 आप तब तक किसी के सामने पूरी तरह झुकने को तैयार नहीं होते जब तक आप अनुभव के एक खास स्तर तक नहीं पहुंचते, एक ऐसा स्तर जहां आप स्वाभाविक रूप से एक भक्त के रूप में निखर जाते हैं।

 

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