‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में लिखा है कि जब मनुष्य सोया रहता है, वह कलयुग में होता है। जब बैठ जाता है, तब द्वापर में, जब उठ खड़ा होता है, तब त्रेतायुग में और जब चलने लगता है, वह सतयुग को प्राप्त करता है। इसलिए कलयुग में हिमालय की चारधाम यात्रा को सतयुग तुल्य माना गया है, क्योंकि चलना ही जीवन है और ठहर जाने का नाम मृत्यु।
चारधाम यानी बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री की यात्रा का सीधा संबंध मन, विचार और आत्मा की शुद्धि से है। कहते हैं कि भाव के साथ की गई चारधाम यात्रा अंतर्रात्मा को बदलने की ताकत रखती है। इस यात्रा ने तमाम सामाजिक दायरों को लांघकर सांस्कृतिक एवं सामरिक दृष्टि से भी पूरे देश के भूगोल को एक सूत्र में पिरोया है। इस यात्रा ने इंसानियत को कई स्तरों पर जोड़ने का संदेश देकर सहिष्णुता और आपसी विश्वास की अनुपम भावनाओं को सुनिश्चित एवं सिंचित किया है। यही वजह है कि जब हम चारधाम की यात्रा पर होते हैं, तो प्रकृति के स्वच्छ-निर्मल एवं नयनाभिराम नजारों के बीच जीवन की सभी सांसारिक उलझनों को पीछे छोड़ देते हैं।
यह ऐसे क्षण हैं, जब हम न सिर्फ तनावमुक्त हो जाते हैं, बल्कि अंतर्मन में खुशी का अहसास भी करने लगते हैं। हममें खुलकर जीने की उत्कंठा पैदा हो जाती है। इसीलिए चारधाम यात्रा को जीवन की यात्रा भी कहा गया है, जिसका शुभारंभ अक्षय तृतीया के दिन सात मई को यमुनोत्री धाम के कपाट खुलने के साथ हो रहा है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में यमुनोत्री धाम से शुरू होने वाली यह यात्रा गंगोत्री धाम से केदारनाथ होते हुए बदरीनाथ पहुंचकर विराम लेती है।
हरिद्वार से शुरू होती है यात्रा
चारधाम यात्रा का शुभारंभ गंगाद्वार हरिद्वार से माना गया है, जो कि श्रीविष्णु के साथ शिव का द्वार भी है। पहाड़ की कंदराओं से उतरकर गंगा पहली बार यहीं मैदान में दृष्टिगत होती हैं। इसलिए हरिद्वार को गंगाद्वार भी कहा गया है। यहीं देवभूमि के प्रथम दर्शन भी होते हैं और यात्री मां गंगा को प्रणाम कर निकल पड़ता है मोक्ष के पथ पर। चारधाम यात्रा का प्रथम पड़ाव है यमुनोत्री धाम। यमुनाजी को भक्ति का उद्गम माना गया है, इसलिए पुराणों में सर्वप्रथम यमुनाजी के दर्शनों की सलाह दी गई है।
कहते हैं कि अंतर्मन में भक्ति का संचार होने पर ही ज्ञान के चक्षु खुलते हैं और ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं साक्षात सरस्वती स्वरूपा मां गंगा। ज्ञान ही जीव में वैराग्य का भाव जगाता है, जिसकी प्राप्ति भगवान केदारनाथ के दर्शनों से ही संभव है। जीवन का अंतिम सोपान है मोक्ष और वह श्रीहरि के चरणों के सिवा और कहां मिल सकता है। पुराण कहते हैं कि जीवन में जब कुछ पाने की उत्कंठा शेष न रह जाए, तब भगवान बदरी नारायण की शरण में चला जाना चाहिए। यहां ब्रह्मकपाल में पिंडदान करने से मनुष्य भव-बाधाओं से तर जाता है। इसीलिए बदरीनाथ धाम को भू-वैकुंठ कहा गया है। लेकिन, यह विधान उनके लिए है, जो चारों धाम की यात्रा करते हैं।
कपाट खुलने की तिथि
- यमुनोत्री : सात मई दोपहर 1.15 बजे
- गंगोत्री : सात मई दोपहर 11.30 बजे
- केदारनाथ : नौ मई सुबह 5.35 बजे
- बदरीनाथ : दस मई सुबह 4.15 बजे
चारधाम माहात्म्य
-: यमुनोत्री :-
उत्तरकाशी जिले में समुद्रतल से 3235 मीटर (10610 फीट) की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री धाम को हिमालय की चारधाम यात्रा का प्रथम पड़ाव और यमुना नदी का उद्गम माना गया है। हालांकि, यमुना का वास्तविक स्रोत जमी हुई बर्फ की एक झील और हिमनद चंपासर ग्लेशियर है। जो कि समुद्रतल से 4421 मीटर की ऊंचाई पर कालिंद पर्वत पर स्थित है। एक पौराणिक कथा के अनुसार यमुनोत्री धाम असित मुनि का निवास था। यहां वर्तमान मंदिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं सदी में करवाया। भूकंप से मंदिर का विध्वंस होने के बाद वर्ष 1919 में टिहरी के महाराजा प्रताप शाह ने इसका पुनर्निर्माण कराया। मंदिर के गर्भगृह में देवी यमुना की काले संगमरमर की मूर्ति विराजमान है। यहां चट्टान से गिरती तप्त जलधाराएं सदृश ध्वनि उत्पन्न करती हैं।
- नजदीकी हवाई अड्डा : जौलीग्रांट-210 किमी
- नजदीकी रेलवे स्टेशन : ऋषिकेश-223 किमी
- सड़क मार्ग : हरिद्वार-ऋषिकेश समेत अन्य प्रमुख स्थान।
-: गंगोत्री :-
उत्तरकाशी जिले में समुद्रतल से 3102 मीटर (10176 फीट) की ऊंचाई पर ग्रेटर हिमालय रेंज में स्थित गंगोत्री धाम को पतित पावनी गंगा का उद्गम माना गया है। हालांकि, गंगा का उद्गम स्रोत यहां से लगभग 19 किमी दूर गोमुख स्थित गंगोत्री ग्लेशियर में 3892 मीटर की ऊंचाई पर है। मान्यता है कि श्रीराम के पूर्वज एवं रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहां भगवान शिव का कठोर तप किया था। शिव की कृपा से देवी गंगा ने इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। यहीं 18वीं सदी में गढ़वाल के गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने वर्तमान मंदिर का निर्माण किया। जो सफेद ग्रेनाइट के चमकदार 20 फीट ऊंचे पत्थरों से निर्मित है। जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने वर्ष 1935 में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। जिससे मंदिर की बनावट में राजस्थानी शैली की झलक दिखती है। यहां शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है। कहते हैं कि प्राचीन काल में यहां मंदिर नहीं था। यात्रा सीजन में भागीरथी शिला के निकट मंच पर देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी जाती थीं। इन्हें श्याम प्रयाग, गंगा प्रयाग, धराली, मुखबा आदि गावों से यहां लाया जाता था और शीतकाल में फिर इन्हीं स्थानों पर लौटा दिया जाता था। ईटी एटकिंसन द हिमालयन गजेटियर (वॉल्यूम-तीन, भाग एक) में लिखते हैं कि अंग्रेजों के टकनौर शासनकाल में गंगोत्री प्रशासनिक इकाई पट्टी व परगने का एक भाग था। मंदिर परिसर के अंदर पुजारी के लिए एक छोटा घर और बाहर तीर्थयात्रियों के लिए लकड़ी का छायादार ढांचा था।
- नजदीकी हवाई अड्डा : जौलीग्रांट-226 किमी
- नजदीकी रेलवे स्टेशन : ऋषिकेश-251 किमी
- सड़क मार्ग : हरिद्वार-ऋषिकेश समेत अन्य प्रमुख स्थान।
-: केदारनाथ :-
रुद्रप्रयाग जिले में समुद्रतल से 3553 मीटर (11654 फीट) की ऊंचाई पर मंदाकिनी व सरस्वती नदियों के संगम पर स्थित केदारनाथ धाम बारह ज्योतिर्लिंगों में सम्मिलित होने के साथ ही हिमालय के चार धाम और पंच केदार में से भी एक है। कहा जाता है कि भूरे रंग के विशालकाय पत्थरों से निर्मित कत्यूरी शैली के इस मंदिर का निर्माण पांडव वंश के जन्मेजय ने कराया था। मंदिर के गर्भगृह में स्वयंभू शिवलिंग विराजमान है। मंदिर छह फीट ऊंचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मंदिर में मुख्य भाग मंडप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में भगवान शिव का वाहन नंदी बैल विराजमान है। कहते हैं कि आठवीं सदी में चारों दिशाओं में चार धाम स्थापित करने के बाद 32 वर्ष की आयु में आद्य शंकराचार्य ने केदारनाथ धाम में ही समाधि ली। उन्हीं के द्वारा वर्तमान मंदिर बनवाया गया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12वीं-13वीं सदी का है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ अंकित है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका। जबकि, इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल ‘चारण’ मानते हैं कि शैव लोग आद्य शंकराचार्य से पूर्व भी केदारनाथ जाते रहे हैं। केदारनाथ धाम के पुजारी मैसूर (कर्नाटक) के जंगम ब्राह्मण होते हैं। वर्तमान में 337वें रावल केदारनाथ धाम की व्यवस्था संभाल रहे हैं।
- नजदीकी हवाई अड्डा : जौलीग्रांट-239 किमी
- नजदीकी रेलवे स्टेशन : ऋषिकेश-229 किमी
- सड़क सुविधा : हरिद्वार-ऋषिकेश के अलावा देहरादून व कोटद्वार से भी यहां पहुंच सकते हैं।
-: बदरीनाथ :-
उत्तराखंड के चमोली जिले में समुद्रतल से 3133 मीटर (10276 फीट) की ऊंचाई पर अलकनंदा नदी के किनारे स्थित भू-वैकुंठ बदरीनाथ धाम भगवान विष्णु को समर्पित है। विष्णु पुराण, महाभारत व स्कंद पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में इसे देश के पौराणिक चार धामों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। माना जाता है कि बदरीनाथ मंदिर का निर्माण सातवीं से नवीं सदी के मध्य हुआ। शंकुधारी शैली में बने 15 मीटर ऊंचे इस मंदिर के शिखर पर गुंबद है और गर्भगृह में श्रीविष्णु के साथ नर-नारायण ध्यानावस्था में विराजमान हैं। शालिग्राम पत्थर से बनी श्रीविष्णु की मूर्ति एक मीटर ऊंची है। मान्यता है कि इसे आद्य शंकराचार्य ने आठवीं सदी के आसपास नारद कुंड से मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित किया था। इस मूर्ति को श्रीविष्णु की आठ स्वयंभू प्रतिमाओं में से एक माना जाता है। यह मंदिर श्रीविष्णु के उन 108 दिव्य मंदिरों में से एक है, जो वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा बनाए गए थे। वर्ष 1803 में हिमालय में एक भयंकर भूकंप आया था, जिससे मंदिर को काफी क्षति पहुंची। तब जयपुर के राजा ने इसका पुनरुद्धार किया था। मंदिर के मुख्य पुजारी केरल के नंबूदरी ब्राह्मण होते हैं, जिन्हें रावल कहा जाता है। यह व्यवस्था स्वयं आद्य शंकराचार्य ने की थी। एक अन्य संकल्पना के अनुसार इस मंदिर को बदरी विशाल के नाम से पुकारते हैं और श्री विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मंदिरों योग-ध्यान बदरी, भविष्य बदरी, वृद्ध बदरी और आदि बदरी के साथ जोड़कर पूरे समूह को पंच बदरी के रूप में जाना जाता है।
- नजदीकी हवाई अड्डा : जौलीग्रांट-317 किमी
- नजदीकी रेलवे स्टेशन : ऋषिकेश-297 किमी व कोटद्वार-324 किमी
- सड़क मार्ग : हरिद्वार, ऋषिकेश के अलावा देहरादून व कोटद्वार से भी यहां पहुंचा जा सकता है।
ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी (रावल एवं मुख्य पुजारी, बदरीनाथ धाम) का कहना है कि चारों युग में चार धाम हुए। सतयुग में बदरीनाथ, त्रेता में रामेश्वरम, द्वापर में द्वारिका और कलयुग में जगन्नाथ धाम। पूरब में जगन्नाथ पुरी, पश्चिम में द्वारिका, दक्षिण में रामेश्वरम व उत्तर में बदरीनाथ धाम स्थित हैं। सतयुग में भगवान के साक्षात दर्शन बदरीनाथ में होते थे। त्रेता में ऋषि-मुनि व महात्माओं ने यहां भगवान के दर्शन किए। लेकिन, द्वापर के अंत में भगवान के दर्शन दुर्लभ हो गए। ऐसे में सभी देवता श्रीहरि की शरण में गए। श्रीहरि ने ब्रह्माजी से कहा कि मैं कलयुग में मूर्तिमान दर्शन दूंगा। इसलिए भगवान यहां शालिग्राम शिला में चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं।
भीमाशंकर लिंग (रावल, केदारनाथ धाम) का कहना है कि हिमालय में केदार नामक शृंग पर अवस्थित यह मंदिर उच्च हिमालय में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित एकमात्र धाम है। श्रीविष्णु के अवतार नर व नारायण की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें ज्योतिर्लिंग रूप में यहां सदा वास करने का वचन दिया। ‘स्कंद पुराण’ में उल्लेख है कि जो मनुष्य केदारनाथ के दर्शन किए बिना बदरीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है।