परमात्मा में प्रविष्ट होने का द्वार है शून्यता

प्रश्न: मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब क्या करूं? भई, अब किए कुछ भी न हो सकेगा! थोड़ी देरी कर दी। थोड़े समय पहले कहते, तो कुछ किया जा सकता था। शून्य होने लगे-फिर कुछ किया नहीं जा सकता, करने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि शून्य तो पूर्ण का द्वार है। तुम शून्य होगे, तो ही परमात्मातुम में प्रविष्ट हो सकेगा। 

क्या है शून्यता: अपने से भरे हो, यही तो अड़चन है पर खाली होने में डर लगता है। तुम्हारा प्रश्न सार्थक है, संगत है, जब भी शून्यता आएगी, तो प्राण कंपते हैं; भय घेर लेता है क्योंकि शून्यता ऐसी ही लगती है, जैसे मृत्यु; मृत्यु से भी ज्यादा। ज्ञानियों ने उसे महामृत्यु कहा है क्योंकि मृत्यु में तो देह ही मरती है, शून्यता में तो तुम ही मर जाते हो।

शून्यता में तो अस्मिता गल जाती है, कोई मैं-भाव नहीं बचता। अब तुम पूछते हो: ‘मैं शून्य होता जा रहा हूं। क्या करूं? कुछ करने की जरूरत भी नहीं है। आने दो शून्य को; स्वागत करो; सन्मान करो; बंदनवार बांधो; उत्सव मनाओ क्योंकि शून्य ही सौभाग्य है और तो कोई सौभाग्य कहां है? इस जगत में जो मिट जाते हैं, वे धन्यभागी हैं लेकिन मिटने में अड़चन तो आती ही है। ‘मिटन’ शब्द ही काटता-सा लगता है।

मिटते-मिटते भी आदमी चेष्टा करता है कि बच जाए? आखिरी-आखिरी क्षण तक तुम किनारे को पकड़े रहोगे और दूसरे किनारे का बुलावा आ गया है। तुमने होकर पाया क्या है? होने से मिला क्या है? होने की दौड़ का नाम ही तो संसार है। खूब तो दौड़कर देख लिए, थक गए जरूर, पहुंचे कहां हो? मंजिल कहां है? अब भी थके नहीं? अब भी शून्य होने से घबड़ाते हो? होने में कुछ नहीं पाया, अब जरा न-होने की भी हिम्मत कर लो। अब न-होना भी सीख लो। अब न-होने को भी देख लो क्योंकि जिन्होंने पाया है, उन सबने यही कहा है: नहीं हो गए-तो पाया, शून्य तो समाधि है।

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