नया साल महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार और सीएम फडणवीस के लिए काफी दुष्कर साबित हो रहा है। पिछले साल के अंत और इस साल की शुरुआत में पूरे प्रदेश में जगह-जगह शुरू हुए दलित आंदोलनों ने सरकार को हिलाकर रख दिया है। दलितों और दक्षिणपंथी संगठनों के बीच के टकराव की वजह से कई दफा महाराष्ट्र में हिंसक माहौल बना। आइए महाराष्ट्र की उन 8 लोकेशनों पर एक नजर डालते हैं जहां खड़े हुए आंदोलनों ने एक अलग तरह के जातिवादी गठजोड़ की रूपरेखा तैयार करने की कोशिश की। वधु बुद्रुक गांव (महार बनाम मराठा संघर्ष)
पृष्ठभूमि: महार समुदाय के गोविंद गायकवाड नाम के नायक से जुड़ी यह कहानी महारों और मराठों के बीच संघर्ष की वजह बनी हुई है। ऐसा माना जाता है कि गोविंद गायकवाड ने छत्रपति शिवाजी के बेटे छत्रपति संभाजी का अंतिम संस्कार किया था। दरअसल मुगल शासक औरंगजेब ने संभाजी को मारा था और उस समय शासन के डर से कोई उनके अंतिम संस्कार के लिए तैयार नहीं था।
राजनीति: पिछले कुछ सालों से दक्षिणपंथी संगठन कैंपेन चला रहे हैं कि संभाजी का अंतिम संस्कार महारों ने नहीं बल्कि मराठों ने किया था।
28 दिसंबर 2017: वधु बुद्रुक गांव में गायकवाड की समाधि के पास के एक शेड और सूचना पट्ट को तोड़ा गया। 29 दिसंबर को दलितों ने मराठों के खिलाफ मामला दर्ज कराया। 30 दिसंबर को दोनों समुदायों के बीच में सुलह हो गई। दलितों ने केस वापस लिया और मराठों ने सूचना पट्ट को फिर से तैयार करवाया।
2- पुणे
31 दिसंबर को पुणे के शनिवार वाडा में दलित संगठनों और मराठा ग्रुप संभाजी ब्रिगेड ने एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। यहां दलितों, मराठों और मुस्लिमों के बीच गठबंधन को लेकर बातचीत हुई।
3- कोरेगांव भीमा
पृष्ठभूमि: एक जनवरी 1818 को कोरेगांव में भीमा नदी के किनारे पेशवाओं और ब्रिटिशों में युद्ध हुआ। पेशवा राज में प्रताड़ना का शिकार होने वाले महार इस युद्ध में ब्रिटिशों की तरफ से लड़े। महारों ने युद्ध की याद में यहां एक स्मारक बनवाया। 1927 में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के यहां आने के बाद से ही दलित युद्ध जीतने के उपलक्ष्य में यहां सालाना जलसे का आयोजन करते आ रहे हैं।
राजनीति: इस युद्ध को दो तरह से पेश किया जाता है। दलित और मराठों का एक हिस्सा इस युद्ध को ‘ब्राह्मण शोषण’ से मुक्ति के रूप में देखता है। वहीं दक्षिणपंथी संगठन इस हिंदू राज के अंत के रूप में लेते हैं।
एक जनवरी 2018: इस युद्ध की 200वीं वर्षगांठ पर समारोह के आयोजन के लिए दलित इकट्ठे हुए। कुछ गांववालों ने बंद का आह्वान किया। पत्थरबाजी ने आगजनी का रूप ले लिया और एक मराठा की मौत हो गई।
4- मुंबई
2 जनवरी: संभाजी भिड़े (84 साल) और मिलिंद एकबोटे (56 साल) पर दलितों पर हुए हमले की साजिश रचने का आरोप लगाकर दलित नेता प्रकाश आंबेडकर ने बंद का आह्वान किया। संभाजी भिड़े की पहचान दक्षिणपंथी नेता के तौर पर है जिन्होंने जोधा अकबर मूवी के खिलाफ प्रदर्शन का नेतृत्व किया था। वहीं एकबोटे बीजेपी/शिवसेना के पार्षद हैं। दोनों के खिलाफ 3 जनवरी को केस दर्ज किया गया।
3 जनवरी: दलितों द्वारा किया गया विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया। 30 पुलिसवाले भी घायल हुए और शहर की रफ्तार थम गई।
5- कोल्हापुर
पुष्ठभूमि: 1902 में कोल्हापुर के शासक और शिवाजी के वंशज साहूजी महाराज ने पढ़ाई और नौकरी में दलितों को आरक्षण दिया। दलित-मराठा मित्रता का यह अपने तरह का पहला सिंबल था।
राजनीति: दक्षिणपंथी राजनीति के उभार से पिछले कुछ दशकों में मराठा और दलितों की राह अलग नजर आई। बीजेपी और शिवसेना ने शरद पवार की एनसीपी व कांग्रेस से आए मराठा नेताओं को अपने साथ करने की राजनीति की।
3 जनवरी: शिव सेना के विधायक राजेश क्षीरसागर ने दलितों के बंद के आह्वान के खिलाफ एक भीड़ का नेतृत्व किया।
6- औरंगाबाद
पृष्ठभूमि: मराठवाड़ा इलाके के इस मुख्य शहर में दलितों और मुस्लिमों की तादादा अच्छी-खासी है। मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के भीमराव आंबेडकर के नाम से नामकरण के बाद हुई हिंसा के बाद शिवसेना ने यहां अपनी राजनीतिक एंट्री की।
राजनीति: शिवसेना के नेताओं ने मुस्लिमों और दलितों के खिलाफ अपनी राजनीतिक जमीन तैयार की है।
3 जनवरी: कुछ मराठा और मुस्लिम संगठनों द्वारा बंद का समर्थन करने के बाद यहां इंटरनेस सेवा बंद कर दी गई।
7- सांगली
राजनीति: एक समय सांगली की पहचान मराठी रंगमंच के जन्मस्थल के रूप में थी। आज यह शहर भी बंटा हुआ है। संभाजी ब्रिगेड का जनाधार यहां बहुत मजबूत है और उसे सारे राजनीतिक दलों का समर्थन भी हासिल है। यहां और खासकर मुस्लिमों की अच्छी संख्या वाले शहर मिराज में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच तनाव आम बात है।
4 जनवरी: संभाजी भिड़े के समर्थकों ने यहां एक रैली का आयोजन कर उनके खिलाफ दर्ज किए गए केस को हटाने की मांग की।
8- नागपुर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भीमा-कोरेगांव हिंसा का दोष कथित ‘भारत तोड़ो ब्रिगेड’ पर डालते हुए कहा कि इस तरह की घटनाओं से हिंदू समाज को बांटने की साजिश की जा रही है। अबतक नागपुर मुख्यालय ने भीमा-कोरेगांव पर अपने स्टैंड को साफ नहीं किया है। हालांकि पूर्व सरसंघ चालक एम.एस. गोलवलकर ने भीमा-कोरेगांव युद्ध को लेकर जलसे के आयोजन की आलोचना की थी। वह इसे देसी राजाओं के हार के तौर पर लेने के पक्षधर थे।