कोरोना संकट के समय में जानें क्‍या हैं वैक्सीन की समस्या, आशंकाओं को भी दूर करने की जरूरत

ऐसे वक्त में जबकि पूरी दुनिया में कोरोना की सबसे तीखी लहर उठने के संकेत हैं, राहत की एक खबर इस महामारी के टीके यानी वैक्सीन को लेकर मिली है। भारत के सीरम इंस्टीट्यूट की ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन के अलावा कई अन्य टीकों के कारगर होने के दावे किए जा रहे हैं। सबसे उल्लेखनीय यह है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 नवंबर, 2020 को कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर इसकी एक सुनिश्चित व्यवस्था बनाने पर जोर दिया है कि देश के नागरिकों को यह टीका जल्द से जल्द मिल सके। यह सही है कि दुनिया में कोरोना को लेकर भयावहता का जो अभूतपूर्व और ऐतिहासिक दौर बन गया है, वह हमारी स्मृतियों से शायद ही कभी निकल सके, पर यदि एक कारगर वैक्सीन लोगों को जल्दी ही मिल सके और पूरी दुनिया अपने सामान्य र्ढे पर लौट सके तो यह उम्मीद ही अपने आप में काफी दिलासा देने वाली होगी। हालांकि वैक्सीन के निर्माण के बाद उसके भंडारण और वितरण का काम सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण होगा। यही असली कसौटी है जिस पर वैक्सीन को खरा उतरना है।

जब से से कोरोना वायरस से पैदा हुई महामारी कोविड-19 ने दुनिया में जोर पकड़ा था, लगभग तभी से यह आश्वस्ति मिलने लगी थी कि इससे मुकाबले को कोई कारगर वैक्सीन हमारे सामने होगी और इस बीमारी को रफा-दफा कर दिया जाएगा, लेकिन धीरे-धीरे पता चलने लगा कि न तो कोरोना एक सामान्य वायरस है और न ही इसकी वैक्सीन को चुटकियों में बनाया जा सकेगा। सिर्फ कोविड-19 ही नहीं, किसी भी बीमारी या महामारी के टीके को चंद महीनों की अवधि में बनाना संभव नहीं होता, लेकिन जैसी अभूतपूर्व स्थितियां कोरोना वायरस के संहारक प्रसार ने पैदा कीं, उसमें यह मांग की जाने लगी कि किसी भी तरह वैक्सीन के निर्माण और ट्रायल की अवधि को छोटा किया जाए, ताकि इससे जितनी जल्द हो सके, मुक्ति मिल जाए। इन्हीं प्रयासों के तहत आज यह स्थिति बन गई है कि फाइजर, मॉडर्ना और एस्ट्राजेनेका नाम की कंपनियों की कोरोना वैक्सीन अब एडवांस स्टेज के ट्रायल में पहुंच चुकी हैं।

हमारे देश में भारत बायोटेक कंपनी की कोवैक्सीन के तीसरे फेज का ट्रायल शुरू हो चुका है और आने वाले समय में उसके आंकड़े भी सामने आएंगे। दुनिया की सबसे बड़े वैक्सीन निर्माता कंपनी के रूप में विख्यात भारत के सीरम इंस्टीट्यूट के साथ मिलकर बनाए गए टीके ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका को तीसरे चरण के ट्रायल में 70 फीसद से ज्यादा कारगर पाया गया है। ऐसे में माना जा रहा है कि अगले साल की पहली तिमाही में कोरोना वैक्सीन भारतीय नागरिकों को उपलब्ध हो जाएगी। बहुत संभव है कि इनमें से किसी एक वैक्सीन को दवा नियामक अगले महीने तक आपातकलीन प्रयोग (इमरजेंसी यूज) की इजाजत दे दे। इसी नजरिये से हमारे देश के कई राज्यों में वैक्सीन को लोगों तक पहुंचाने के लिए हर जिले में कोल्ड चेन की सुदृढ़ व्यवस्था बनाने पर जोर दिया जा रहा है।

आशंकाओं के जवाब की जरूरत : वैक्सीन के संबंध में फिलहाल जिस तथ्य को ध्यान में रखने की जरूरत है, वह यह है कि इनके ट्रायल अभी भी जारी हैं। ऐसे में इनकी कामयाबी और मिलने वाली सुरक्षा के प्रतिशत के आंकड़ों में फेरबदल हो सकता है। आंकड़ों में तब्दीली के अतिरिक्त भी कुछ ऐसी आशंकाएं हैं, जिनके ठोस जवाब शायद ही किसी वैक्सीन निर्माता कंपनी के पास हों। जैसे शायद ही कोई इसका सौ फीसद दावा कर पाए कि इन टीकों के कोई साइड इफेक्ट नहीं होंगे। यानी इन्हें लगवाने के बाद हो सकता है कि कोई व्यक्ति कोरोना वायरस के प्रभाव से बच जाए, लेकिन थकान, सिरदर्द, चक्कर, पेट खराब होने जैसे सामान्य लक्षणों के अलावा कोई अन्य बीमारी होने की आशंका से वह मुक्त नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह टीका लगवाने के कितने समय तक उस पर कोरोना वायरस हमला नहीं कर सकता है-इसकी भी एक निश्चित मियाद बताना कंपनियों के लिए फिलहाल संभव नहीं है। इसकी अहम वजह यह है कि ये सभी टीके ट्रायल और साइड इफेक्ट के लिए मानक या निर्धारित अवधि से काफी पहले ही बाजार में उतारने की तैयारी में हैं।

यूं तो दवाओं के साइड इफेक्ट के बारे में बाद में विचार किया जा सकता है। हो सकता है कि ये कंपनियां और सरकारें ठीक दिशा में सोच रही हैं, लेकिन इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता कि कहीं टीकों की वजह से लेने के देने न पड़ जाएं। हालांकि कोरोना के खतरों के मद्देनजर साइड इफेक्ट की आशंकाओं को दरकिनार कर अमेरिका, ब्रिटेन और जापान जैसे देशों ने फाइजर कंपनी के टीके की एडवांस बुकिंग कर ली है और भारत सरकार की ओर से भी ऐसी ही बुकिंग की उम्मीद यह कंपनी कर रही है, लेकिन भारत में एक अन्य समस्या इसकी राह रोके खड़ी है।

भंडारण और वितरण की चुनौती : हमारे देश में इन टीकों का सुरक्षित भंडारण एक बड़ी चुनौती है। उल्लेखनीय है कि इन वैक्सीन को असरदार बनाए रखने के लिए जरूरी है कि उन्हें बेहद न्यूनतम तापमान पर स्टोर किया जाए। जैसे फाइजर की वैक्सीन को -70 डिग्री तापमान पर स्टोर करने की आवश्यकता है, जो भारत और कई अन्य गरीब एवं विकासशील देशों के लिए चुनौतीपूर्ण है। ध्यान रखना होगा कि -70 से -80 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले मेडिकल फ्रीजर्स तो अमेरिकी और यूरोपीय अस्पतालों में भी मुश्किल से ही मिलते हैं। ऐसे में भारत जैसे विकासशील और गर्म देशों में ये टीके ज्यादा असरदार साबित होंगे, इसमें भरपूर संदेह है। केंद्र सरकार के एक अधिकारी के अनुसार 16 हजार से ज्यादा कोल्ड चेन स्टोरेज की जरूरत पड़ेगी।

आज भी देश की 50-60 फीसद आबादी गांवों में रहती है और वहां गर्मियों में लू चलने के अलावा बिजली भी खूब जाती है और चिकित्सा का आधारभूत ढांचा भी बेहद लचर है। हालांकि फाइजर ने एलान किया है कि वह वैक्सीन के साथ एक आइस कंटेनर भी देगी, जो दस दिन तक -70 का तापमान बनाए रख सकता है। बहरहाल फार्मा कंपनी मॉडर्ना ने दावा किया गया है कि उसकी वैक्सीन सामान्य रेफ्रीजरेटर में सुरक्षित रखी जा सकती है। भारत के अपेक्षाकृत गर्म माहौल को देखते हुए सामान्य रेफ्रीजरेटर में लंबे समय तक सुरक्षित रहने वाली वैक्सीन ही ज्यादा कारगर मानी जा सकती है। वैसे चुनौतियों कुछ और भी हैं। जैसे वैक्सीन को कंपनी से डिस्पैच के छह महीनों के अंदर देश की कम से कम 18 फीसद आबादी तक पहुंचाना होगा।

कहने को तो हमारे स्वास्थ्य मंत्रालय ने जुलाई 2021 तक 25-30 करोड़ लोगों को टीका लगाने की योजना बना ली है, लेकिन टीकाकरण के अन्य अभियानों और इन्हें लेकर देश में मौजूद जागरूकता के अभावों के मद्देजर कहा जा सकता है कि कोविड-19 पर अगले साल के अंत तक काबू पाना भी आसान नहीं होगा। हालांकि दुनिया के अन्य देशों से तुलना करने पर पता चलता है कि टीकाकरण में भारत एक अव्वल मुल्क है और हर साल 40 करोड़ विभिन्न टीके यहां की आबादी को लगाए जाते हैं। ऐसे में इस उम्मीद को खारिज नहीं किया जा सकता है कि कोरोना की सफल वैक्सीन बना जाने पर महामारी पर अंकुश लगाने वाले टीकाकरण अभियान की मुश्किलों से भी हमारा देश पार पा लेगा।

दशकों में बन पाता है कोई टीका 

एक दौर था जब दुनिया टीकों के बारे में नहीं जानती थी। चेचक, प्लेग, फ्लू और पोलियो जैसी बीमारियों ने इस कारण पूरी दुनिया पर कहर बरपा रखा था, लेकिन जब एक फ्रांसीसी जैवविज्ञानी लुई पाश्चर ने चिकन हैजा रोग के टीके का विकास किया तो दुनिया को बीमारियों की रोकथाम का एक रास्ता मिल गया। पाश्चर ने मुíगयों को होने वाले हैजा के अलावा एंथ्रेक्स और रेबीज आदि के टीके भी विकसित किए थे। पाश्चर के दिखाए रास्ते पर ही विश्व में टीकाकरण अभियानों की शुरुआत हुई थी। लुई पाश्चर के बाद एक काम एडवर्ड जेनर ने 1796 में किया था, जिन्होंने चेचक के टीके का विकास किया था।

जहां तक पोलियो की वैक्सीन का सवाल है तो यह 20वीं सदी के छठे दशक में सामने आई। अमेरिका की पीट्सबर्ग यूनिवर्सटिी में साइंटिस्ट जोनास सॉल्क ने 1952 में पहले प्रभावी पोलियो टीके के विकास का दावा किया था। इसके साल भर बाद मार्च 1953 को एलान किया कि उन्होंने पोलियो वैक्सीन को बच्चों के एक छोटे ग्रुप पर आजमाया है और कारगर पाया है। यह वैक्सीन पोलियो के तीनों प्रकार (टाइप-1,2 और 3) पर असरदार पाई गई थी। वर्ष 1954 में तत्कालीन अमेरिका के 44 राज्यों के 18 लाख बच्चों पर पोलियो के टीके का परीक्षण किया गया। उसके बाद बताया गया कि पोलियो वैक्सीन टाइप-1 वायरस के खिलाफ 60 से 70 फीसद और टाइप-2 तथा टाइप-3 वायरस के खिलाफ 90 फीसद कारगर है। इन नतीजों के आधार पर सॉल्क वैक्सीन को 1955 में लाइसेंस (पेटेंट) दिया गया और अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों में पोलियो टीकाकरण अभियान शुरू कर दिया गया।

कैसे होती है टीका बनाने की शुरुआत: वास्तव में किसी संक्रमण का टीका बनाने की शुरुआत उस वायरस के जेनेटिक कोड का पता लगाने से होती है। इस साल दस जनवरी, 2020 को चीन ने कोरोना वायरस का जेनेटिक कोड दुनिया के साथ साझा कर दिया था, जिसके बाद से ही कोरोना की वैक्सीन के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी। इसके तहत वायरस का जेनेटिक सिक्वेंस बताया गया था जिससे वायरस में आने वाले बदलावों और इसके उस व्यवहार का अंदाजा लगता है जो इसे एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति और एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में फैलने की ताकत देता है। इससे यह जानकारी भी मिलती है कि यह वायरस तेजी से फैलेगा या धीमी गति से। यह बताता है कि इस वायरस का उद्भव क्या है और किन हालात में यह वायरस जीवित रह सकता है तथा इसका खात्मा कैसे मुमकिन है। कोई वैक्सीन बनाने के लिए जरूरी है कि उस वायरस के व्यवहार और बदलाव के सारे पैटर्न सावधानी से पढ़े जाएं, ताकि उनके मुकाबले के लिए बनने वाली वैक्सीन में कोई कमी न रह जाए।

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