एक तपस्वी को उसके शिष्य ने कुछ कह दिया। शिष्य की बातें सुनकर तपस्वी को क्रोध आया और वह उसे मारने दौड़ा। मगर रात के अंधेरे में वह खंभे से टकरा गया और उसका देहांत हो गया।
तपस्वी मरकर फिर तापस बना और इस बार वह आश्रम का अधिपति बन गया। उसका नाम था, चंडकौशिक तापस। एक बार आश्रम में ग्वालबाल फल-फूल तोड़ने के अभिप्राय से आ घुसे, क्रोधित चंडकौशिक उन्हें देखकर मारने दौड़ा। मगर ध्यान न रहने से वह एक कुएं में जा गिरा और मर गया।
क्रोध के क्षणों में मृत्यु होने से चंडकौशिक तापस उसी वन में विष-दृष्टि सर्प बना। विषधर और भयंकर सर्प के डर से लोगों ने उधर जाना-आना बंद कर दिया। एक बार महावीर स्वामी साधना करते-करते हुए उस वन में जा निकले। महावीर को चंडकौशिक नागराज ने ज्योंही देखा, वह विष ज्वाला उगलने लगा।
महावीर भी उसके बिल के पास ही अडिग खड़े रहे। क्षमा और क्रोध का संघर्ष चलता रहा। चंडकौशिक सर्प ने महावीर के चरणों में अपना तीक्ष्ण दंश भी मारा। मगर वहां खून के बदले दूध की धार बह निकली। चंडकौशिक यह देखकर अचंभित रह गया। पहली बार उसने देखा कि किसी व्यक्ति को सर्पदंश से खून नहीं, दूध निकला है।
सर्प थोड़ा सहज हुआ, तो वह महावीर की चरणों में लोटने लगा। महावीर ने उससे कहा, कोई बात नहीं, हम दोनों ने अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आचरण किया। तुम्हें भी पता होगा कि अंततः क्षमा और शांति ही जीतती है।
कहते हैं कि इसके बाद चंडकौशिक ने लोगों को काटना-फुफकारना छोड़ दिया। अब उसने लोगों को अभय देना शुरू किया। जिस दिन उसकी मृत्यु हुई, उस दिन चंडकौशिक ने देवयोनि प्राप्त की।