मधुबनी के बेनीपट्टी अनुमंडल मुख्यालय से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर उत्तर पश्चिम कोण में थुम्हानी नदी और पवित्र सरोवर के तट पर अवस्थित प्रसिद्ध सिद्धपीठ उच्चैठ भगवती स्थान रामायण काल के पहले से यहां स्थित है।
मां काली भक्तों पर दया करनेवाली, चारों पुरुषार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करनेवाली मानी जाती हैं। सालों भर मां के दरबार में श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। नवरात्र में यहां मां के दर्शन को दूर दूर से लोग आते हैं।
वैसे तो सिद्धपीठ मां उच्चैठवासिनी दुर्गा के दरबार में सालों भर नेपाल, बिहार सहित देश के विभिन्न प्रदेशों के कोने कोने से भक्तजन पहुंच इनके चरणों में माथा टेकते हैं और भगवती की पूजा-अर्चना करते हैं।
किंतु चैत्र, शारदीय और आषाढ़ नवरात्र के पावन मौके पर श्रद्धालुओं की भीड़ यहां खूब होती है। वैदिक मंत्रोच्चार एवं भक्तजनों के जयकारे से समूचा मंदिर परिसर एक अलग तरह के आध्यात्मिक वातावरण में परिणत हो जाता है।
सिंह पर सवार स्वर वनदुर्गा उच्चैठ भगवती की ढ़ाई फीट की कलात्मक प्रतिमा जो गदा, चक्र, शंख एवं पद्य को धारण की हुई है, उनके चरणों के बाएं भाग में मछली की प्रतिमा का प्रतीक है तो चरण के दायें भाग के नीचे ब्रह्मा जी के प्रतिमा का प्रतीक है।
माता के सिर पर अनमोल रत्न जड़ित अमूल्य मणियों से बना मुकुट शोभायमान है। श्यामली वर्ण और विशाल नेत्रों वाली शुभलोचना चार भूजा वाली हैं। उनकी पूजा-अर्चना हजारों-हजार सालों पहले से यहां की जा रही है।
किवदंती है कि पुरुषोत्तम राम भी उच्चैठ में भगवती दुर्गा की पूजा करते थे। उच्चैठ भगवती के संबंध में कहा जाता है कि राजा जनक की यज्ञ भूमि उच्चैठ स्थान है और उन्हें वरदान भी यहीं से मिला था। राम, लक्ष्मण और विश्वामित्र को दुर्गा के दर्शन भी यहीं हुए थे।
नरलीला के लिए उच्चैठ वासिनी ही यहां सीता रूप में विराजमान रही हैं और पांचों पांडवों को उच्चैठ भगवती का आशीर्वाद मिला। मधुबनी जिले में अनेकों मंदिर और सिद्धिपीठ स्थल हैं। इन में से कुछ मंदिर तो इतने प्राचीन हैं की इनकी आयु तक ज्ञात नहीं है।
ये सिद्धिपीठ हजारों वर्षो से मिथिला में लोगों की आस्था का प्रतीक बने हुयें हैं। आज भी लोग , यहाँ, मन्नत मांगने के लिए आस-पास और सुदूर जगहों से आते हैं। उच्चैठ दुर्गा स्थान मिथिला का एक धरोहर , पर्यटक और धार्मिक स्थान है।
ऐसा माना जाता है कि यहां छिन्न मस्तिका मां दुर्गा स्वयं विराजमान हैं। यहां जो भी आता है मां उसकी मनोकामना अवश्य पूरा करती हैं उसी तरह जिस तरह कालीदास का किया था|
कहते हैं कि एक बार महामूर्ख कालीदास अपनी विदुषी पत्नी विद्योत्तमा के द्वारा तिरस्कृत किये जाने के बाद उच्चैठ आ गए और नदी किनारे स्थित एक आवासीय विद्यालय में रसोइया का काम करने लगे।
कुछ दिनों के बाद नदी में भयंकर बाढ़ आ गयी। नदी का दोनों किनारा पानी में समा गया। नदी के दुसरी ओर माँ दुर्गा की मन्दिर स्थित थी। मंदिर में संध्या दीप जलाने का कार्य इसी छात्रावास का एक छात्र करता था।
लेकिन नदी में भयंकर बाढ़ और तेज बहाव के कारण वह छात्र संध्या दीप जलाने के लिए मंदिर नहीं जा सका।कोई भी छात्र नदी के उस पार जाने की हिम्मत नहीं कर पाए।
कालिदास को महामूर्ख जानकार सबों ने उसे नदीं के पार जाकर मंदिर में संध्या दीप जला कर आने को कहा और सच्चाई के लिए कि वह वहां गया था कि नहीं, इसके लिए मंदिर में निशान लगाने को भी कहा।
मूर्ख काली दास नदी में कूद गया डूबते- तैरते मंदिर पहुंचा। संध्या दीप जलाकर पूजा अर्चना की। निशान लगाने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं था। उसने दीये की कालिख को हाथ में लगा लिया, चारों ओर दीवारों पर देखा कहीं न कहीं कुछ निशान लगा ही था।
उसने सोचा कहां निशान लगाऊं उसे सिर्फ मां की मुंह ही साफ़ दिखाई दी| फिर उसने मां के मुंह में ही निशान लगा दिया। जैसे ही उसने मैया के चेहरे पर कालिख लगाया माता प्रकट होकर बोलीं अरे मुर्ख तुझे इस मन्दिर में निशान लगाने का कोई स्थान नहीं मिला था|
इस बाढ़ और भयंकर वर्षा में तुम अपना जीवन जोखिम में डालकर यहां आये हो| ये तुम्हारी मूर्खता है या भक्ति।कालीदास ने अपनी आपबीती मां भगवती को सुना दी। कालीदास की कथा से द्रवित होकर भगवती बोल उठी मैं तुम्हे एक वरदान देती हूं।
आज रात तुम जितनी भी पुस्तकों को स्पर्श करोगे वो सब तुम्हे कंठस्थ हो जाएगा। कालिदास वहां वापस आने पर सभी छात्रों को खाना खिला कर उन सबों की पुस्तकों को सारी रात बारी-बारी से स्पर्श करते रहे|
एक-एक कर सारी किताबें उन्हें कंठस्थ हो गईं| कालीदास एक ही रात में विद्वान् बन गया और एक महान कवि बन गया।भारत के कुल 51 शक्तिपीठों में उच्चैठ वासिनी 17 वां शक्तिपीठ है। आदि काल से ही मिथिला शक्ति उपासना में अग्रणी रहा है। उच्चैठ भगवती वो अवतार हैं जिनका प्रभाव तत्काल ही भक्तों पर पड़ता है।