मायावती का साथ छोड़कर मैदान में उतरे स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी किसी के साथ जाएंगे या फिर खुद का फ्रंट बनाएंगे, इन सवालों का जवाब तो भविष्य में मिलेगा। पर, मौर्य ने 1 जुलाई को यहां अपने समर्थकों की बैठक में जिस तरह 22 सितंबर को रैली करने की घोषणा की है।
उधर, चौधरी ने भी 11 जुलाई को समर्थकों की बैठक में आगे की रणनीति का फैसला करने का एलान किया है। इससे साफ हो जाता है कि दोनों ही किसी जल्दीबाजी में नहीं हैं। इन्होंने भविष्य की भूमिका की पूरी स्क्रिप्ट तैयार कर रखी है और उस पर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया है।
दोनों इस समय भले अलग-अलग हों, लेकिन इनका इरादा एक जैसा ही दिखाई दे रहा है-पहले अपनी ताकत दिखाओ। फिर दूसरों को दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए मजबूर करो।
ऐसा लग रहा है कि मौर्य व चौधरी अपनी ताकत से सिर्फ बसपा का ही नहीं, बल्कि दूसरों का भी खेल बिगाड़ने की तैयारी में हैं। कहीं न कहीं इनकी कोशिश नीतीश कुमार की यूपी में जमीन तलाशने के प्रयास में बैरिकेडिंग खड़ी करने की भी है।
मायावती के खिलाफ मौर्य व चौधरी के पीछे है साझा ताकत
राजनीतिक समीक्षकों का यह निष्कर्ष कि किसी भी दल के जमे-जमाए नेता अगर पार्टी छोड़ते हैं तो उसके पीछे सोची-समझी रणनीति होती है। साथ ही कोई न कोई ऐसी ताकत भी होती है जो उन्हें स्थापित करती है। इनकी शक्ति का प्रचार कराती है, मौर्य व चौधरी के मामले में अक्षरश: सत्य होती दिख रही है।
इनके पीछे कोई ऐसी साझा ताकत है जो इनके जरिये सूबे के सियासी समीकरणों में उलटफेर कराना चाहती है। जिसका इरादा बसपा व सपा के वोटों के गणित को ही नहीं गड़बड़ करना है, बल्कि उत्तर प्रदेश में नीतीश की ताकत के विस्तार के इरादों पर अंकुश लगाना भी है।
यह है प्रमाण
मौर्य ने जिस तरह मायावती पर यह आरोप लगाया है कि पिछड़ों की आबादी 54 प्रतिशत है, पर इसे टिकट सिर्फ 20-30 फीसदी ही दिए जाते हैं। जिनकी आबादी सिर्फ 4.5 प्रतिशत है, उन्हें 130-140 टिकट दिए जा रहे हैं। कांशीराम के रहते पिछड़ों को अधिक तरजीह मिलती थी।
उन्होंने बताया कि जिलों के संगठन में अध्यक्ष अगर पिछड़े वर्ग का होता था तो महासचिव दलित होता था। अध्यक्ष अगर दलित होता था तो महासचिव पिछड़ा बनता था। पर, मायावती ने इस सिद्धांत को बदल दिया है।
चौधरी ने भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जिस तरह मायावती पर गरीब दलितों की उपेक्षा का आरोप लगाया है, उससे भी यही साबित होता है कि दोनों किस रणनीति पर काम कर रहे हैं।
यह है असली वजह
दरअसल, प्रदेश में 54 प्रतिशत पिछड़ों की आबादी में सपा का आधार वोट समझे जाने वाले 20 प्रतिशत यादवों को निकाल दें तो बाकी 80 प्रतिशत आबादी कुर्मी, मौर्य, शाक्य, कुशवाहा, लोध, तेली, कुम्हार, कोरी, कोइरी, मुराव, बुर्झी, हलवाई, विश्वकर्मा, लोहार, तमोली, कलवार जैसी अति पिछड़ी जातियों की है।
तभी समाजवादी पार्टी ने 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में प्रदेश में सरकार बनाने के बाद इन अति पिछड़ी जातियों के पाल, कुम्हार, प्रजापति, विश्वकर्मा जैसी कई जातियों को सरकार से लेकर संगठन तक भागीदारी दी।
17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा। धनगर समाज को अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र दिलाने का आदेश किया। उधर, बसपा के संस्थापक कांशीराम ने भी कई अति पिछड़ी जातियों को प्रतिनिधित्व देकर सोशल इंजीनियरिंग के जरिये बसपा को मजबूत बनाने की कोशिश की थी। इसी इंजीनियरिंग की उपज मौर्य हैं।
बाद में मायावती ने इस सोशल इंजीनियरिंग में अगड़ों को जोड़कर बसपा के लिए सत्ता की राह आसान बनाने की कोशिश की। मौर्य अति पिछड़ों तो चौधरी गैर जाटव दलितों में 16 प्रतिशत हिस्सेदारी वाली पासी बिरादरी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
एक अलग फ्रंट बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं दोनों
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्री प्रो. कौशल किशोर कहते हैं कि बदली परिस्थितियों में इन दोनों को कहीं न कहीं यह एहसास हो गया है वे अपनी-अपनी जातियों की गोलबंदी करके ताकत बन सकते हैं। तभी ये दोनों किसी पार्टी में शामिल होने की जल्दबाजी के बजाय बसपा के बागियों को एकजुट करके एक फ्रंट बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं।
सामने आ सकते हैं नए समीकरण
प्रो. किशोर कहते हैं कि सोशल इंजीनियरिंग की ताकत को इसी से समझा जा सकता है कि 2014 में नरेंद्र मोदी ने खुद के चेहरे को पिछड़ा, गरीब और शोषित समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला गढ़कर सपा व बसपा का खेल बिगाड़ दिया था।
उसी राह पर चलकर नीतीश ने लालू को साथ लेकर भाजपा का खेल बिगाड़ा। मौर्य या स्वामी जिस किसी की भी स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हों, लेकिन प्रदेश में निकट भविष्य में नए समीकरण बनते दिखाई दे रहे हैं, जो सपा को झटका देंगे और बसपा को भी।
संभव है स्वामी व चौधरी के नेतृत्व में साझा फ्रंट बने, जो बाद में किसी से समझौता कर सूबे की सियासत में नए समीकरण गढे़।