नई दिल्ली : आजकल धार्मिक पहचान को आधार बनाकर समूहों को देखने और उनकी विशेषताएं रेखांकित करने का चलन बढ़ता जा रहा है।
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शिक्षा में लिंग भेद के मामले में भी इन दोनों का रिकॉर्ड सबसे खराब है। हिंदू महिलाएं स्कूलों में औसतन 4.2 साल का समय बिताती हैं, तो मुस्लिम महिलाएं 4.9 साल। पढ़ाई के मामले में दुनिया में सबसे ऊपर पाए गए हैं यहूदी, जिनका औसत है 13.4 साल। यानी एक औसत यहूदी ग्रैजुएट होता है, जबकि औसत हिंदू-मुसलमान प्राइमरी पास। लेकिन गौर करने की बात यह है कि स्कूली पढ़ाई को अहमियत देने का सवाल मूलत: धर्म से नहीं जुड़ा है। यह प्राथमिक तौर पर हमारे आर्थिक और सामाजिक हालात से तय होता है। हिंदुओं की आबादी का 97 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा भारत और इसके सीमावर्ती देशों (नेपाल तथा बांग्लादेश) में रहता है, इसलिए यहां का पिछड़ापन उस पर सीधा असर डालता है। यहां रहने वाली अन्य धार्मिक समूहों की आबादी भी इसी माहौल से प्रभावित होती है, लिहाजा उसका औसत भी मिलता-जुलता ही है। फर्क वहां दिखता है जहां हिंदुओं को एकदम अलग माहौल मिला हुआ है। जैसे अमेरिका और यूरोप में रहने वाली हिंदू आबादी को देखें तो नतीजे बिल्कुल चौंकाने वाले मिलते हैं। रिपोर्ट बताती है कि अमेरिकी हिंदू औसतन 15.7 साल स्कूल/कॉलेज में बिताते हैं और यूरोपीय हिंदू 13.9 साल। दोनों अपने-अपने देशों में पढ़ाई को सबसे ज्यादा अहमियत देने वाले समूहों के रूप में चिह्नित किए गए हैं। सब उन तमाम लोगों के लिए है जो जनसंख्या वृद्धि से लेकर अशिक्षा और अपराध तक के आंकड़ों को धार्मिक समूहों वाले चश्मे से देखने के आदी हैं। इस गलत चश्मे की वजह से ना केवल समस्या गलत रूप में सामने आती है बल्कि इसके कथित समाधान समस्या को और बढ़ाने वाले साबित होते हैं।