ग्राम प्रधान का पद पैतृक संपत्ति नहीं है जिसे किसी को सौंप दिया जाए। महिला ग्राम प्रधान की जगह प्रधानपति, प्रधानपिता या प्रधानपुत्र जैसी चीजों को मान्यता नहीं दी जा सकती, ऐसी सोच खत्म करने की जरूरत है।सीधे जनता द्वारा चुने गए व्यक्ति की जगह खुद को रखने वाले व्यक्ति पर आपराधिक केस किया जा सकता है।’ हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने यह टिप्पणी एक महिला ग्राम प्रधान के पति की याचिका निपटाते हुए की।
जस्टिस अमरेश्वर प्रताप साही और जस्टिस शमशेर बहादुर सिंह ने प्रदेश सरकार के पंचायत राज सचिव को इस संबंध में सभी ग्राम प्रधानों को निर्देश देने को कहा है। साथ ही इस चलन के लिए ग्राम प्रधानों को चेतावनी देने को भी कहा है।
याचिका विनोद कुमार मिश्रा ने दायर की थी। उन्होंने अपनी पत्नी की ओर से दायर याचिका में प्रतापगढ़ की लालगंज तहसील की ढिंगवस ग्राम पंचायत में राशन दुकानों के आवंटन में मनमानी का आरोप लगाया था।
उनकी पत्नी ढिंगवस की ग्राम प्रधान हैं। खंडपीठ ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि याची ग्राम प्रधान का पति है और उसने याचिका ग्राम प्रधान की ओर से याचिका दायर की है। याचिका में उठाए गए मुद्दे के अलावा यह एक बड़ा मुद्दा है कि पंचायत की जिम्मेदारी कोई और व्यक्ति निभा रहा है। ऐसे में यह याचिका जनहित याचिका नहीं रह जाती।
अदालत ने सवाल किया कि विनोद मिश्रा को क्या अधिकार है कि वे चुनी हुई ग्राम प्रधान के आधिकारिक और औपचारिक कर्तव्यों को खुद निभाने लगें। हाईकोर्ट ने कहा कि ग्राम प्रधान ही ग्राम पंचायत और ग्राम सभा की ओर से सिविल केस दायर करता है।
उसका यह अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता। हालांकि हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि सरकार अगर चाहे तो याचिका में उठाए गए मुद्दे पर जांच करके उसे सुधार सकती है। विनोद मिश्रा का आरोेप है कि एसडीएम नियमों को दरकिनार राशन दुकानों का आवंटन कर रहे हैं।
लोगों ने प्रधान को चुना है, उसके परिवार को नहीं
हाईकोर्ट में अपने आदेश में स्पष्ट किया कि लोग प्रधान को चुनते हैं, उसके परिवार के लोगों को नहीं। पद की शपथ भी ग्राम प्रधान ही लेता है, उसके परिवार के सदस्य नहीं। जब शपथ उसने ली है, तो पंचायत के आधिकारिक कार्य व कर्तव्य भी उसी को निभाने होंगे।
प्रधान पद के प्रशासकीय व वित्तीय कार्य भी उसे ही करने होंगे, जिनमें ग्राम सभा का अकाउंट संचालित करना, प्रस्ताव पारित कराना, ग्राम सभा की भूमि की भू-प्रबंधन समिति के अध्यक्ष के तौर पर काम करना शामिल हैं।
ऐसा कोई कानून नहीं है जो यह कहता है कि यह सब कुछ ग्राम प्रधान का कोई रिश्तेदार कर सकता है। ऐसा होगा तो लोकतंत्र का पहला सिद्धांत ही खत्म हो जाएगा जो कहता है कि प्रत्यक्ष चुनाव जीते व्यक्ति में ही नागरिक अपनी इच्छा दर्शाते हैं।
हाईकोर्ट ने कहा कि ग्राम प्रधान के सभी कार्य उसके हस्ताक्षर से ही चलते हैं। इनकी जगह ‘प्रधानपति’, ‘प्रधानपिता’ या ‘प्रधानपुत्र’ को अनुमति नहीं दी जा सकती। जजों ने कहा कि मौजूदा मामला भी ऐसा ही है, जो इस किस्म की सोच को बढ़ावा देता है।हाईकोर्ट ने कहा कि कई बार महिला ग्राम प्रधान आरक्षित सीट से चुन कर आती है तो लोग उन्हें गृहिणी, अनपढ़ या किसी और वजह से उसे पद के लिए कमतर बताते हैं। इसी आधार पर पति द्वारा प्रधानी के काम किए जाने को जायज ठहराया जाता है।
हाईकोर्ट और देश का संविधान इस पूर्वाग्रह को नहीं मानता। किसी को महिला होने की वजह से कमजोर नहीं कहा जा सकता। यह सोच लैंगिक अन्याय को बढ़ावा देने वाली है। अगर महिला किसी लिहाज से पीछे है तब भी राजनीति में उनके खुलकर आने से लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी। वे खुद भी मजबूत बनेंगी।
यह पुरातन पितृसत्तात्मक समाज की छाया को दूर करने के लिए जरूरी है। हाईकोर्ट ने कहा कि कई दशकों में महिलाओं के हालात में सुधार नहीं आया है। यह 1939 में प्रसिद्ध पत्रकार रजनी जी शहानी की लिखी पुस्तक ‘इंडियन पिलग्रिमेज’ के भाग ‘द ग्रैंड्यर एंड सर्विट्यूड ऑफ इंडियन वीमन’ और वर्तमान पत्रकार बरखा दत्त की पुस्तक ‘द यूनीक लैंड’ के भाग ‘प्लेस ऑफ वीमन’ में तुलना करके समझा जा सकता है।