सबसे पहले तो प्रदेश की जनता को आनंदित रखने के लिए आपने जो अनोखी पहल की, उसके लिए साधुवाद। हालांकि आनंद, खुशी या हैप्पीनैस की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं है। किस व्यक्ति को क्या करने से खुशी मिलेगी, ये नितांत निजी मामला है। फिर भी आपने जो सरकारी कोशिशें शुरू कीं, वे काबिलेगौर हैं। अरस्तू कह गए हैं कि किसी राज्य में जब तक दार्शनिक लोग शासक नहीं हो जाते या शासक दर्शन शास्त्र नहीं पढ़ लेते, तब तक उस राज्य के आम आदमी की मुसीबतों का अंत होना नामुमकिन है। जाहिर-सी बात है मुसीबतें और खुशी साथ-साथ नहीं रह सकतीं। मध्य प्रदेश में अरस्तू का फार्मूला अमल में आ पाएगा या नहीं, ये वक्त बताएगा। लेकिन इन दिनों आप जिस दार्शनिक अंदाज में सोच रहे हैं, वो थोड़ी आशाएं जरूर जगाता है।
एक छोटी-सी कहानी आपसे शेयर करता हूं। एक राजा था। उसके राज्य की जनता न ज्यादा खुश थी, न बहुत दुखी। अमूमन राजा के पास ज्यादा शिकायतें भी नहीं आती थीं। थोड़े वक्त में ही राजा को अपना राज करना बेकार लगने लगा। उसने सोचा, ऐसा राज किस काम का, जिसमें जनता हमारे सामने गिड़गिड़ाए न, हमें अपना माई-बाप न बताए, अपने दुखड़े न रोये और हमसे कुछ मांगे नहीं। यही सोच उसने राज्य की एक बनी-बनाई सड़क उखड़वा दी। उसने सोचा कि जब सड़क से आवाजाही बंद होगी तो परेशान लोग खुद-ब-खुद उसके पास आएंगे। लेकिन राज्य के लोग परेशान होने के बावजूद राजा के पास नहीं पहुंचे। राजा ने उस सड़क पर नदी न होने के बावजूद एक पुल बनवा दिया और उस पर टैक्स भी लगवा दिया। इसके बाद भी जनता राजा के दरबार में नहीं पहुंची। तब राजा ने पुल पर सैनिक तैनात कर आदेश दिया कि जो व्यक्ति पुल पार करे, उससे टैक्स लेने के साथ सैनिक उसे कोड़े भी मारें। अब पुल पर रोजाना सुबह-शाम, जब आवाजाही ज्यादा होती थी, जबरदस्त भीड़ होने लगी। लोगों को काम पर जाने और घर लौटने में देरी होने लगी। तब कुछ लोग राजा के दरबार में पहुंचे। गुहार लगाई कि राजा साहब आपने सड़क उखड़वा दी, कोई बात नहीं! पुल बनाकर जबरन टैक्स लगा दिया, कोई बात नहीं! सैनिकों से कोड़े पड़वाने लगे, कोई बात नहीं! हमारी तो बस इतनी गुजारिश है कि कोड़े मारने वाले सैनिकों की संख्या बेहद कम है। कोड़े खाते-खाते पुल पर बहुत भीड़ हो जाती है। आप सैनिकों की संख्या बढ़ा दें ताकि हम जल्दी-जल्दी कोड़े खाकर काम पर व घर पर सही वक्त पर पंहुच सकें।
ये कहानी काल्पनिक जरूर है लेकिन इसका मर्म असली है। हमारे देश-प्रदेश की जनता भी ऐसी ही है…बेहद सहनशील! वो थोड़े में ही खुश हो जाती है। सपने भी जल्द देखने लगती है। फिर बरसों सपने साकार होने का इंतजार करने में भी उसे गुरेज नहीं है। सपना टूटकर बिखर भी जाए, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। शासक को तो सिर्फ इतना करना पड़ता है कि वो जनता को फिर कोई नया सपना दिखा दे। जनता सब कुछ भूल फिर से उसमें ही डूबने-उतराने लगती है।
खैर किस्सा-कहानी अपनी जगह, हम वापस लौटते हैं ‘आनंद” पर। जहां तक मेरी समझ है, खुशी तो जीवन का सह-उत्पाद (बाय-प्रोडक्ट) है.. ठीक पैसा, शोहरत, रुतबा या पद की तरह। कामयाब लोग भी कहते हैं- हम तो अपना काम पूरे मन से करते रहे। कब और कैसे हमने पैसा कमाया, कब हमारी कीमत बढ़ती गई, कब हमारी शोहरत बढ़ी और हम इतने बड़े पद पर पहुंच गए, हमें पता ही नहीं लगा। वैसे भी जब समाज को पैसा ही संचालित कर रहा हो या यूं कहें कि अच्छे-बुरे का एकमात्र पैमाना पैसा ही बनता जा रहा हो, अच्छे राज्य या शासक की सबसे बड़ी खासियत ये हो कि वो कितना विदेशी निवेश ला रहा है, ऐसे में बिना पैसे के आनंद की बात करना बेमानी-सा लगता है। देखने वाली बात ये भी रहेगी कि जब उपभोक्तावादी व्यवस्था में समाज को नियंत्रित करने वाले चंद पूंजीपति और ताकतवर बिगड़ैल यथास्थिति को बनाए रखना चाहते हैं, तब आप निचले तबके तक खुशियां कैसे पहुंचाएंगे? खैर, आप इन दिनों बड़े-बड़े धर्मगुरुओं की संगत में हैं। निश्चित तौर पर उन्होंने आपको बताया ही होगा कि आप जनता को ज्यादा खुश कैसे रख सकते हैं। शायद उसके बाद ही आपके मन में ‘आनंद मंत्रालय” जैसी परिकल्पना उभरी होगी, जो बाद में तकनीकी वजहों से विभाग में बदल गई (अब सुनने में आ रहा है कि सोसायटी बनाई जा रही है)।
शिवराज जी, जनता को खुश रखने के लिए हो सके तो आप एक काम जरूर कीजिए। अधिकारियों, मंत्रियों, पार्टी पदाधिकारियों और तमाम जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही (एकांउटिबिलिटी) जरूर तय कर दीजिए। दरअसल, हम किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति की जवाबदेही या तो तय ही नहीं कर पाते, और अगर करते भी हैं तो इतनी देर से कि लगता ही नहीं कि पीड़ित को इंसाफ भी मिला है। आप लगातार लगभग ग्यारह साल से प्रदेश के मुखिया हैं और उधर अनुमति के इंतजार में लोकायुक्त में रिश्वतखोरों के हजारों मामले पेंडिंग पड़े हैं। दूर मत जाएं, पिछले साल ही दिसंबर में बड़वानी जिला अस्पताल में ऑपरेशन के बाद सत्तर से भी ज्यादा गरीब लोगों की आंखों की रोशनी चली गई थी। आपकी सरकार ने तुरंत ही वहां के सिविल सर्जन को निलंबित भी कर दिया था, लेकिन छह महीने तक सरकार निलंबित सर्जन के खिलाफ आरोप पत्र भी पेश नहीं कर पाई और सर्जन बहाल हो गए। ऐसे मामलों की अंतहीन फेहरिस्त है। हो सके तो निजी कंपनियों की तर्ज पर अधिकारियों और मंत्रियों का ‘केआरए” (की रिजल्ट एरिया – यानी उनकी क्या-क्या जिम्मेदारियां हैं और अगर वो जिम्मेदारियां पूरी नहीं की तो क्या सजा होगी) भी तय करवा दीजिए। शायद ऐसा करने से कुछ हो या न हो, कम से कम इतना तो हो ही जाएगा कि निजी स्कूलों की फीस-वृद्धि जैसे ज्वलंत और दर्द भरे मुद्दे पर आठ-दस साल में तो कानून बन ही जाएगा। मैं याद दिला दूं कि आपने पहली बार 2000 में इस मुद्दे पर कानून बनाने की बात कही थी। तब से अब तक शिक्षा मंत्रालय में पांच मंत्री और आठ प्रमुख सचिव बदल चुके हैं, मामला अदालत में चला गया है, लेकिन आपका कानून नहीं बन पा रहा है। आप कानून बनाकर देखिए, अपने बच्चों को स्कूलों में पढ़ा रहे मध्यमवर्गीय परिवारों के चेहरे पर कैसे खुशियां छा जाती हैं!
खुशियां बांटने के लिए आप एक प्रयोग और कर सकते हैं। चंद महीनों के लिए ही सही, अपने उन सभी साथियों की गाड़ी की लाल-पीली-नीली बत्ती उतरवा दीजिए, जो इनमें दनदनाते हुए घूमते हैं। फिर वो अधिकारी हों या नेता। असल में ज्यादातर बार लंबे समय तक रंग-बिरंगी बत्तियों की गाड़ी में घूमने, एयर कंडीशंड घरों से निकलकर, एयर कंडीशंड गाड़ियों से, एयर कंडीशंड दफ्तरों में बैठने से ये सारे लोग असल दुनिया की दुश्वारियों से अलग-थलग हो जाते हैं। भ्रम पालकर वे सोचने लगते हैं कि ये गरीब जनता बेवजह रोती रहती है। देखो, परेशानियां कहां हैं, हमें तो कोई परेशानी नहीं दिखती। हो सकता है ऐसा करने से वो शासक की मानसिकता और अपने दायरे से बाहर आकर जनता का दर्द महसूस कर सकें। शायद ऐसा करने से ही जनता को असली खुशियां मिल सकेंगी।