साल 1971 ऐसा रहा था जब भारत के हाथों करारी हार के बाद पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी थी। आज भी जब जिक्र होता है तो भारत अपनी छाती चौड़ी करके कहता है कि ये वो समय था जब हमने तुम्हें झुकने पर मजबूर किया था। ये साल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के यादगार निर्णयों की वजह से याद किया जाता है। आज यानी 31 अत्तूबर को इंदिरा की पुण्यतिथि है और उनसे जुड़ी उस कहानी से रूबरू करा रहे हैं जिसने उन्हें आयरन लेडी बना दिया था।
पाकिस्तान किसी ना किसी बहाने से चीन और अमेरिका की ताकत पर फूलते हुए भारत को गीदड़ धभकियां दे रहा था। 25 अप्रैल 1971 को तो इंदिरा ने थलसेनाध्यक्ष से यहां तक कह दिया था कि अगर पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए जंग करनी पड़े तो करें, उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है। भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा पर दोतरफा दबाव पड़ रहा था। पहला तो ये कि कैसे वो सीमा से सटे भारतीय राज्यों में पैदा हो रही अशांति को खत्म करें।
दूसरा ये कि किस तरह पाकिस्तान को उसी की भाषा में मुंहतोड़ जवाब दिया जाए। इंदिरा गांधी ने ऐसे में पाकिस्तान को दोतरफा घेरने का प्लान बनाया जिसमें तय था कि पाकिस्तान को कूटनीतिक तरीके से असहाय बनाना और दूसरी तरफ उस पर सैन्य कार्रवाई के जरिए सबक सिखाना। इसके लिए इंदिरा ने सेना को तैयार रहने का आदेश दे दिया था। वहीं अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने उसे घेरना शुरू कर दिया था।
उस वक्त अमेरिका के तत्कालीन एनएसए हेनरी किसिंजर ने भारत का दौरा किया। किसिंजर से इंदिरा गांधी की बैठक को उनकी कूटनीतिक समझ के जरिए देखा जाता रहा है। किसिंजर भारत पर दबाव बनाने के लिए आए थे, जिससे कि भारत पाकिस्तान की हरकतों को नजरअंदाज कर दे। इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री आवास पर किसिंजर के साथ ब्रेकफास्ट मीटिंग तय की और बैठक से पहले शाम को ही तत्कालीन थलसेनाध्यक्ष जनरल मानिक शॉ को भी ब्रेकफास्ट पर आने के लिए कह दिया गया।
हालांकि उन्हें किसिंजर के साथ मीटिंग के बारे में नहीं बताया गया था। मानिक शॉ को हिदायत दी गई थी कि वो ब्रेकफास्ट के लिए अपनी फुल यूनीफॉर्म में पहुंचे। थलसेनाध्यक्ष को ब्रेकफास्ट पर फुल यूनीफॉर्म में जाना समझ नहीं आया तो उन्होंने दोबारा पूछा कि क्या फुल यूनिफॉर्म में आना जरूरी है? उन्हें जवाब मिला हां।
जनरल मानिक शॉ ब्रेकफास्ट के लिए प्रधानमंत्री आवास पहुंचे तो उन्हें इंदिरा गांधी की कूटनीतिक समझ का अंदाजा हो गया। इंदिरा ने पूरी मीटिंग के दौरान किसिंजर को ये समझाने की कोशिश की कि वो पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे नरसंहार पर पाकिस्तान से कहे कि वो इस पर रोक लगाए। अमेरिका का कहना था कि ये उनका अंदरूनी मामला है तो इंदिरा ने साफ कर दिया कि इससे भारत के सीमावर्ती राज्यों की शांति भंग हो रही है। अगर अमेरिका पाकिस्तान को नहीं रोकता है तो भारत को कड़ी कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
किसिंजर ने पूछा आप क्या चाहती हैं तो इंदिरा ने जनरल शॉ की तरफ इशारा कर कहा कि हमें इनकी मदद लेनी पड़ेगी। इस मीटिंग के जरिए भारत ने अमेरिका के सामने अपने तेवर साफ कर दिए थे। अमेरिका की नरमी देखते हुए भारत ने 9 अगस्त 1971 को सोवियत संघ के साथ एक सुरक्षा संबंधी समझौता भी कर लिया जिसमें तय हुआ था कि दोनों देश सुरक्षा के मसले पर एक-दूसरे की मदद करेंगे।
वहीं दूसरी ओर पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना की ज्यादतियां बढ़ती ही जा रही थीं। इन ज्यादतियों से आजिज आकर वहां की पुलिस, पैरामिलिट्री फोर्स, ईस्ट बंगाल रेजिमेंट और ईस्ट पाकिस्तान राइफल्स के बंगाली सैनिकों ने पाकिस्तानी सेना के खिलाफ बगावत कर खुद को आजाद घोषित कर दिया था। ये लोग भारत से मदद की उम्मीद कर रहे थे। भारत उनके लिए फौजी ट्रेनिंग देने लगा जिससे वहां मुक्तिवाहिनी सेना का जन्म हुआ।
1971 के नवंबर महीने में पाकिस्तानी हेलिकॉप्टर भारतीय सेना में बार-बार दाखिल हो रहे थे जिसके बाद पाकिस्तान को इस पर रोक लगाने की चेतावनी भी दी गई, लेकिन उल्टा तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति याहया खान ने भारत को ही 10 दिन के अंदर जंग की धमकी दे डाली। पाकिस्तान इस बात से उस वक्त तक अंजान था कि भारत अपनी तैयारी पहले ही कर चुका था।
इंदिरा तब युद्द के लिए मन पक्का कर चुकी थीं। 3 दिसंबर को पाकिस्तान ने वो गलती कर डाली जिसका शायद भारत को इंतजार था। पाकिस्तानी सेना के हेलिकॉप्टरों ने भारतीय शहरों पर बमबारी करनी शुरू कर दी। जब इंदिरा को पाकिस्तानी हमले की खबर मिली तो वो सीधे मैपरूप पहुंची। तब तक रात के 11 बज चुके थे। इंदिरा ने कैबिनेट की बैठक बुलाई और मामले की गंभीरता की जानकारी विपक्षी नेताओं को भी दी गई।
आधी रात को ही भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर देश को संबोधित किया। गांधी ने सेना को ढाका की तरफ बढ़ने का आदेश दे दिया तो वहीं दूसरी ओर भारतीय वायुसेना ने भी पाकिस्तानी शहरों पर गोलीबारी शुरू कर दी। 3 दिसंबर 1971 को भारत की तरफ से की गई गोलीबारी का जवाब भारत ने 4 दिसंबर 1971 को ऑपरेशन ट्राइडेंट के रूप में दिया।
भारतीय नौसेना ने भी युद्ध में दो मोर्चों को संभाला। एक तरफ पश्चिमी पाकिस्तान की सेना का मुकाबला तो दूसरी तरफ बंगाल की खाड़ी में पाकिस्तानी नौसेना को जवाब देना। 5 दिसंबर को कराची बंदरगाह पर भारतीय नौसेना की कार्रवाई ने पाकिस्तान के नौसैनिक मुख्यालय को तबाह करके रख दिया। पाकिस्तान घिरा हुआ था। वहीं इसी वक्त इंदिरा ने युद्धविराम से पहले ही बांग्लादेश को मान्यता देने का ऐलान कर दिया। भारत की ये घोषणा सीधे तौर पर इशारा थी कि पूर्वी पाकिस्तान अब बांग्लादेश का हिस्सा नहीं बल्कि एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। ये फैसला इस वजह से किया गया था जिससे कि कहीं ये मामला यूनाइटेड नेशन्स में ना लटक जाए।
वहीं दूसरी ओर अमेरिका ने भी पाकिस्तान की मदद के लिए अपना शक्तिशाली बेड़ा बंगाल की खाड़ी की तरफ भेज दिया। इंदिरा इसकी तैयारी भी पहले ही कर चुकी थीं। उन्होंने सोवियत संघ से संधि के तहत हिंद महासागर में अपने जंगी जहाज भेजने के लिए कहा। दो महाशक्तियां भारत पाकिस्तान की जंग में शामिल हो चुकी थीं। इंदिरा जानती थीं कि उन्हें अमेरिका के सातवें बेड़े के भारत के करीब पहुंचने से पहले पाकिस्तान को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करना पड़ेगा। भारत के तत्कालीन थलसेनाध्यक्ष मानिक शॉ ने पाकिस्तानी सेना को आत्मसमर्पण की चेतावनी दे दी।
इसके बावजूद पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के कमांडर ए के नियाजी ने इससे इंकार कर दिया। ये वो वक्त था जब भारतीय सेना ढाका को तीनों तरफ से घेर चुकी थी। 14 दिसंबर को भारतीय सेना ने ढाका में पाकिस्तानी गवर्नर के घर पर हमला कर दिया। वहां पाकिस्तानी अधिकारियों की गुप्त मीटिंग चल रही थी। इसके बाद नियाजी ने तुरंत युद्ध विराम का प्रस्ताव भेज दिया, लेकिन भारत को ये मंजूर नहीं था। थलसेनाध्यक्ष ने कह दिया कि अब युद्धविराम नहीं बल्कि सरेंडर होगा। कोलकाता से पूर्वी सेना के कमांडर जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ढाका पहुंचे।
नियाजी ने जनरल अरोड़ा के सामने सरेंडर के कागज पर हस्ताक्षर किए। सरेंडर के प्रतीक के तौर पर नियाजी ने अपनी रिवॉल्वर भी अरोड़ा को सौंप दी। सरेंडर के बाद इंदिरा ने ऐलान किया कि भारत ने 14 दिनों के भीतर पाकिस्तान को झुकने पर मजबूर कर दिया।