हार्दिक पटेल की चमत्कारिक लोकप्रियता, राहुल गांधी की तुर्शी, भाजपा के राज्य नेतृत्व के फीकेपन और जीएसटी की मार के बावजूद कोई समझदार राजनीतिक प्रेक्षक गुजरात में भाजपा को कमजोर आंकने की गलती नहीं कर सकता.
फिर ऐसा क्या है जो गुजरात की जंग इतनी कंटीली हो गई है. यह पिछले तीन साल का कमाल है जिसने गुजरात के चुनाव को भारत में पिछले पच्चीस सालों का सबसे रहस्यमय चुनाव बना दिया है. यह चुनाव तीन ऐसे सवालों के जवाब लेकर आएगा जिनसे भारतीय राजनीति पहली बार मुकाबिल है.
पहला – गहरी आर्थिक मंदी का चुनावी राजनीति से क्या रिश्ता है?
दूसरा – क्या तरक्की के बावजूद असमानतायें बढ़ती रह सकती हैं और उनके चुनावी फलित भी हो सकते हैं?
तीसरा – क्या खौलते जनआंदोलनों के बावजूद लोगों के चुनावी फैसले अपरिवर्तित रह सकते हैं?
बीते तीन साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य में जो कुछ हुआ है वह भी शेष भारत से पूरी तरह फर्क है. ठीक उसी तरह जैसे कि पिछले दो दशक में गुजरात देश से अलग चमकता रहा था. यह उठा पटक नरेंद्र मोदी के गांधीनगर से दिल्ली जाने के बाद हुई. राजनीतिक आबो हवा में इस बदलाव की जड़ें राज्यो की अर्थव्यवस्था में हैं.
गुजरात में माहौल बदलने की पहली सरकारी मुनादी जुलाई 2016 में हुई थी जब देश को पता चला कि 2014-15 के दौरान गुजरात भारत में सबसे तेज विकास दर वाले पांच राज्यों से बाहर निकल गया है. वह अब दसवें नंबर पर था और गहरी मंदी में धंस गया था. यह आंकड़ा जिस वित्तीय साल की तस्वीर बता रहा था वह नरेंद्र मोदी के बाद गुजरात का पहला वर्ष था.
इस वक्त तक पाटीदार आंदोलन पहला साल पूरा कर चुका था. आरक्षण की मांग कर रहे बेरोजगार युवाओं का आंदोलन भाजपा को राज्य का मुखिया बदलने पर मजबूर करने वाला था और 2017 में गुजरात को भाजपा के लिए सबसे करीबी लड़ाई बना देने वाला था जिसे वह चुटकियों में जीतती आई थी.
मंदी, बेकार और पाटीदार
गुजरात अगर कोई देश होता तो उसकी मंदी दुनिया में चर्चा का विषय होती. पिछले दो दशकों में गुजरात की ग्रोथ जितनी तेज रही है ढलान उससे कहीं ज्यादा तेज है. औद्योगिक बुनियाद, तटीय भूगोल और निजी पूंजी के कारण गुजरात औद्योगिक ग्रोथ का करिश्मा रहा है. भारत में सिर्फ छह फीसदी जमीन और पांच फीसदी जनसंख्या वाला गुजरात पूरे देश से तेज (दस फीसदी तक) दौड़ा. गुजरात ने देश के जीडीपी में 7.6 फीसदी व निर्यात में 22 फीसदी हिस्सा ले लिया.
लेकिन मैन्युफैक्चरिंग पर आधारित अर्थव्यवस्थायें मंदी में (सेवा या कृषि वाली अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले) ज्यादा तेजी से टूटती हैं इसलिए गुजरात में मंदी व बेकारी शेष भारत से कहीं ज्यादा गहरी है. यह ढलान 2013 से शुरु हुई. पाटीदार युवा आंदोलन और गुजरात में मंदी की शुरुआत समकालीन हैं. मंदी से कराहता गुजरात का कारोबार नोटबंदी और जीएसटी की चोट से बिलबिला उठा और चुनावी नुकसान के डर से भाजपा को पूरा जीएसटी सर के बल खड़ा करना पड़ा.
करिश्मे का असमंजस
मोदी के गुजरात का करिश्मा उसकी खेती के पुर्नजागरण में छिपा है. 2001 से 2011-12 तक गुजरात का कृषि उत्पादन देश की तुलना (3 फीसदी के मुकाबले 11 फीसदी) में अप्रत्याशित रुप से तेज था. खेतिहर ग्रोथ के बावजूद ग्रामीण गुजरात में सामाजिक सुविधायें पिछड़ी रही जो गवर्नेंस की पिछले दो दशक सबसे बड़ी उलझन है. 2013 से ही खेती भी मुश्किल में है जिसकी वजह मौसम (सूखा-बाढ़) भी है बाजार भी. शहर उद्योग, सेवाओं और सरकारी नौकरी के कारण किसी तरह चल रहे हैं, लेकिन मंदी ने गांवों के लिए मौके खत्म कर दिये हैं इसलिए ग्रामीण गुजरात का गुस्सा इस चुनाव में भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल है.
आंदोलनों की हुंकार
गुजरात देश से कितना से अलग है पिछले तीन साल इसके गवाह हैं जब शेष भारत केंद्र की नई सरकार के नेतृत्व में अच्छे दिनों पर चर्चा कर रहा था तब गुजरात आंदोलनों से सुलग रहा था. इस राज्य ने जितने आंदोलन पिछले तीन साल में देखे हैं उतने हाल के वर्षों में नहीं हुए. ज्यादातर आंदोलन युवाओ, किसान, कामगारों और व्यापारियों के थे जो मंदी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.
गुजरात अपने छोटे से भूगोल में आार्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों की पेचीदगी समेटे है इसलिए गुजरात का चुनाव पिछले दो दशक का सबसे रोमांचक चुनाव हो गया है.
गुजरात के नतीजे पहली बार हमें स्पष्ट रुप से बतायेंगे कि मंदी और बेकारी के बीच लोग कैसे वोट देते हैं. लिखना जरुरी नहीं है कि यह निष्कर्ष भारत के भविष्य की आर्थिक राजनीति के लिए बहुत कीमती होने वाले हैं.