गोरखपुर: मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रतिष्ठा से जुड़ी गोरखपुर लोकसभा सीट पर भाजपा उम्मीदवार की हार का हर किसी के लिए अपने-अपने निहितार्थ भी हैं और वजह भी। चुनाव से पहले इस सीट पर हर कोई मानता था इस बार मुकाबला कड़ा है लेकिन अधिकतर लोगों का मानना यही था कि अंतत: जीत भाजपा की ही होगी। मगर उप चुनाव का नतीजा उनके लिए बेहद चौंकाने वाला निकला। सपा, बसपा और निषाद पार्टी का जातिगत समीकरण भाजपा की रणनीति पर भारी पड़ा।
वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 2014 तक हुए लोकसभा चुनावी मुकाबलों में इस सीट पर भाजपा के आसपास भी नजर नहीं आता था। कई बार तो चुनाव परिणाम आने के बाद सभी विपक्षी उम्मीदवारों को मिले मतों को जोड़ भी भाजपा उम्मीदवार को मिले मत से कम ही रहता था। चुनावी लहर कोई हो भाजपा के इस गढ़ में आते-आते बेअसर हो जाती थी। हालांकि यह भी अहम तथ्य है कि ऐसी स्थिति तब थी जब इस सीट पर भाजपा उम्मीदवार गोरक्ष पीठ से जुड़ा होता था।
जीत मानकर चल रहे थे लोग
वर्ष 1989 से 1996 तक इस सीट से गोरक्ष पीठ के महंत अवेद्यनाथ (ब्रह्मालीन) और उनके बाद उनके शिष्य योगी आदित्यनाथ इस सीट से चुनाव मैदान में उतरते रहे। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह सीट खाली हुई तो उप चुनाव में भाजपा ने पार्टी के पुराने कार्यकर्ता उपेंद्र दत्त शुक्ल को उम्मीदवार बनाया। इस सीट पर भाजपा की जीत के प्रति आश्वस्त लोग उम्मीदवारी घोषित होने के बाद से ही सोशल मीडिया पर उपेंद्र दत्त शुक्ल को भावी जीत की बधाई देने लगे। योगी के प्रभाव वाली सीट पर उपेंद्र की जीत तय मानने वालों की बड़ी तादात थी। उप चुनाव के लिए सपा, बसपा, निषाद पार्टी और पीस पार्टी के एक मंच पर आ जाने के बाद राजीनीतिक विश्लेषक भी लड़ाई कठिन तो बता रहे थे लेकिन अंतत: कम अंतर से ही सही भाजपा उम्मीदवार की जीत की भविष्यवाणी भी कर रहे थे।
उप चुनाव की आहट शुरू होते ही दोनों दलों में जीत की रणनीति बनाने लगी। भाजपा को जहां अपने परंपरागत मतदाताओं और मोदी व योगी के प्रभाव पर भरोसा था वहीं बसपा, निषाद पार्टी और सपा के साथ मिलकर सपा जातीय समीकरण बनाने में जुटी थी। सपा, बसपा, पीस और निषाद पार्टी के पदाधिकारियों से लेकर कार्यकर्ता तक मतदाताओं तक तेजी से पहुंच बना रहे थे। चुनाव परिणाम से स्पष्ट है कि वे इसमें सफल भी हुए।
निषादों ने दिखाया दम
गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र में सबसे अधिक निषाद जाति के मतदाता हैं। वर्ष 2013 में निषाद पार्टी की स्थापना करने के बाद डा. संजय निषाद सजातीय लोगों के बीच मजबूत पकड़ बनाने में सफल रहे। यादव और मुसलमान पहले से ही सपा के परंपरागत वोटर रहे हैं। उप चुनाव में बसपा का समर्थन मिलने के बाद दलित मतदाता उनसे जुड़कर सपा उम्मीदवार के लिए जीत की ठोस जमीन तैयार कर दी। सपा-बसपा के इस जातीय समीकरण को लंबे से चल रही कई दौर बैठकों में बनी भाजपा की रणनीति भेद नहीं सकी।