देहरादून: प्रदेश में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के तमाम दावे खोखले साबित हो रहे हैं। एक ओर जहां नीति आयोग की रिपोर्ट स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल खोल रही है, इससे इतर भी महकमा कई मोर्चों पर पिछड़ता नजर आ रहा है। उपचार की बात छोड़िए, जागरूकता के लिहाज से भी स्थिति बेहतर नहीं दिख रही। करोड़ों का बजट खर्च करने के बाद भी शिशु मृत्यु दर में कमी नहीं आ रही। इतना ही नहीं डिलीवरी के लिए अस्पताल आने वाली महिलाओं की संख्या में भी इजाफा न के बराबर है। यानी जच्चा-बच्चा की सेहत पर विभाग संजीदा नहीं है। टीकाकरण को लेकर जरूर विभाग अपनी पीठ थपथपा सकता है। इसे लेकर स्थिति में कुछ सुधार दिखा है।
दिखावेभर के रह गए अस्पताल
भले ही स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर प्रदेश में बड़ी संख्या में अस्पताल, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना की गई है। लेकिन चिकित्सकों के अभाव में ये स्वास्थ्य केंद्र दिखावेभर के हैं। सबसे बड़ी समस्या प्रदेश में विशेषज्ञ चिकित्सकों को लेकर है। इस समय प्रदेश विशेषज्ञों की भारी कमी से जूझ रहा है। स्थिति यह कि हृदय रोग, न्यूरो, मनोरोग आदि के गिने-चुने चिकित्सक हैं। सिर्फ डॉक्टर ही नहीं पैरामेडिकल स्टाफ की स्थिति भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती।
सरकारी हेल्थ सिस्टम में नर्सिंग स्टाफ की भी भारी कमी है। अवस्थापना के लिहाज से मैदानी जनपदों का हाल फिर भी ठीक है, पर दुरुह पर्वतीय क्षेत्रों में स्थिति बुरी है। यहां बात-बात पर लोगों को दून और अन्य शहरों की दौड़ लगानी पड़ती है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि पहाड़ के अस्पताल रेफरल सेंटर बनकर रह गए हैं। वह मरीज को इलाज देने के बजाए मैदानी क्षेत्रों की तरफ ठेल रहे हैं।
उपचार ही नहीं जागरूकता में भी फिसड्डी
प्रदेश में लचर स्वास्थ्य सेवा और जागरूकता का अभाव होने के कारण लगातार नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में बढ़ोतरी हो रही है। आए दिन अस्पतालों से लेकर घरों में सही उपचार न मिलने से कई नवजात जन्म लेने के बाद या फिर कोख में ही काल के ग्रास में समा रहे हैं। पहाड़ की बात छोड़िए, यहां दून की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। प्रदेश के सबसे बड़े अस्पतालों में शुमार दून महिला अस्पताल (अब मेडिकल कॉलेज) में निक्कू वार्ड से लेकर तमाम अन्य इंतजाम धराशायी हो चुके हैं। हाल ये कि अभी कुछ दिन पहले सिर्फ वेंटिलेटर न मिलने के कारण एक गर्भवती की जान चली गई।
निजी क्षेत्र पर निर्भरता
पिछले 17 साल में तमाम सरकारें स्वास्थ्य के मोर्चे पर फेल साबित हुई हैं। हालात सुधारने के नाम पर बस पीपीपी मोड को लेकर भागमभाग दिखती है। दून का ही उदाहरण लीजिए, यहां कार्डियक केयर से लेकर नेफ्रो यूनिट तक पीपीपी मोड पर संचालित है। अब भी सरकार तमाम अस्पताल निजी हाथों में देने पर आमादा है। राज्य के सुविधाजनक मैदानी क्षेत्रों में निजी अस्पतालों की बहुलता के बीच सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं भी कुछ हद तक ठीक हैं, लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में व्यस्थाएं पटरी से उतरी हैं।