सभी के साथ समानता का व्यवहार कर उच्च आदर्शों की शिक्षा देने वाले पै़गंबर हज़रत मुहम्मद साहब का जन्म इस्लामिक कैलेंडर के रबी उल अव्वल माह की 12वीं तारीख को हुआ था। इस दिन को ईद मिलादउन-नबी के रूप में मनाया जाता है।
मुहम्मद का शाब्दिक अर्थ होता है प्रशस्त। हज़रत मुहम्मद साहब का जन्म उत्तरी अरब के शहर मक्का में 571 ई. में कुर्रायश कबीले के सबसे कुलीन वंश-बनू हाशिम में हुआ था। उस समय का मक्का न सिर्फ़ व्यापार का केंद्र था, बल्कि प्राचीन पवित्र स्थान क़ाबा भी मक्का शहर में ही था। इस वजह से वहां आसपास के सभी देशों के व्यापारी और तीर्थ- यात्री आते थे।
महम्मद साहब के पिता अब्दुल्ला का देहांत उनके पैदा होने से पहले और उनकी माता आमिना का देहांत, जब वे मात्र 6 वर्ष के थे, तभी हो गया था। उनके चाचा अबू तालिब ने ही उनको पाला-पोसा। वे शुरू से ही हर काम को लेकर ईमानदार और निष्ठावान थे, जिस वजह से मक्का के लोगों ने उनको ‘अलअमीन’ का नाम भी दिया, जिसका अर्थ है भरोसेमंद इंसान।
लगभग 25 वर्ष की आयु में उनकी शादी खदिज़ा से हुई, जो उनके कार्यों से बेहद प्रभावित थीं। दुनियादारी से दूर रहने वाले मुहम्मद साहब ज़्यादातर समय शहर से थोड़ी दूर हिरा नाम की एक गुफ़ा में बिताते और आध्यात्मिक चिंतन करते। 610 ई. में उन्हें पहली बार ईश्वरीय अनुभूति हुई। उनकी पत्नी खदिज़ा ही थीं, जिन्होंने उन्हें सबसे पहले पैग़ंबर के रूप में पहचाना। वे अपने अंतिम समय तक मुहम्मद साहब के मिशन का स्तंभ बन कर रहीं। मुहम्मद साहब जीवन की इस अनोखी शुरुआत के बाद 23 साल जीवित रहे और शांतिपूर्वक अपने संदेशों का प्रसार करते रहे।
इसमें उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन जीवन में कभी उन्होंने अपने विपक्षियों का बुरा नहीं सोचा। विरोधियों को भी क्षमा कर देने के दृष्टिकोण ने उन्हें अपार सफलता प्रदान की। मशहूर अमेरिकी लेखक माइकल हॉर्ट ने ‘द-100’ नामक पुस्तक में उन्हें दुनिया के 100 अत्यंत कामयाब लोगों की सूची में पहले स्थान पर रखा।
जब मक्का के लोगों ने मुहम्मद साहब और उनके साथियों का जीवन बहुत कठिन कर दिया, तब उन्होंने मक्का से 280 मील दूर स्थित मदीना जाने का निर्णय लिया। उस समय रेगिस्तान में 280 मील का सफ़र आसान नहीं था। मुश्किलों के बाद वे मदीना पहुंचे, जहां लोगों ने उनका हार्दिक स्वागत किया। वहां उन्होंने किसी समस्या की बजाय सिर्फ ईश्वर, शांति और भाई-चारे की बात रखी। मुहम्मद साहब के एक साथी अबू ज़र ग़फ़्फ़री के अनुसार, ‘उन्होंने किसी पर कभी भी अपमानजनक टिप्पणी नहीं करने की सलाह दी थी।’
मुहम्मद साहब जब मदीना के शासक बन चुके थे, तब उनकी कही हुई हर बात क़ानून थी। मुहम्मद साहब नमाज़ पढ़ने से पहले अपने हाथ धोते तो उनके साथी उस पानी की एक बूंद भी धरती पर गिरने नहीं देते। लोगों की इतनी श्रद्धा और समर्पण किसी भी व्यक्ति को घमंडी बना सकता है, पर मुहम्मद साहब पर इन सब चीज़ों का ज़रा भी असर न था। वे स्वयं को सिर्फ ईश्वर का सेवक मानते थे।
मुहम्मद साहब के जीवन में ऐसे अनेक उद्धरण मिलते हैं, जहां उन्होंने हर किसी को अपनाया और गले लगाया। वे शिकायत की भाषा नहीं जानते थे। उन्होंने एक कर्तव्य केंद्रित समाज बनाने में मेहनत की, न कि अधिकार केंद्रित। एक महान मानव का व्यक्तित्व और कार्य कैसा होना चाहिए, उन्होंने अपने जीवन से इसका उदाहरण प्रस्तुत किया।