एक कहावत है, ‘बाप पर पूत पिता, पर घोड़ा बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा’। तो असर तो होगा ही। फिर हर बच्चा अपने माता-पिता से प्रेरित होता है। मैं उन्हीं से प्रेरित हुआ। बहरहाल, मेरे पिता ने मुझसे एक बात कही थी कि हमारे जमाने में तो एक्टिंग का कोई ऐसा इंस्टीट्यूट होता नहीं था, लेकिन अगर तुम्हें यह सुविधा मिल रही है, तो उसका इस्तेमाल करो।
फिर उन्होंने वर्ष 1969 में मेरा दाखिला पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में करवा दिया। वहां, मैंने एक्टिंग की बारीकियां सीखीं। स्कूल या कॉलेजों में बच्चे बंक करके फिल्म देखने चले जाते हैं, लेकिन वहां हमे क्लासरूम में फिल्में दिखाई जाती थीं।
मैं खुशनसीब रहा कि पहली फिल्म में मुझे अवॉर्ड भी मिला, लेकिन संघर्ष जारी रहा। फिर वर्ष 1973 में ऋषिकेश मुखर्जी एक फिल्म बना रहे थे ‘नमक हराम’ और गुलजार साहब ने मेरी फिल्म देखी थी, तो उन्होंने ही ऋषि दा से मेरे लिए बात की। मुझे उन्होंने बुलाया। वह एडिटिंग कर रहे थे। मुझे बाहर लेकर आए और सीढ़ियों पर बैठने को कह दिया। ऋषि दा ज्यादा बोलते नहीं थे।
उन्होंने मुझे कहा, ‘मैं ज्यादा बात नहीं करूंगा, लेकिन इस फिल्म में जो रोल है, वह लकी एक्टर्स को बीस साल में एक बार मिलता है। अनलकी एक्टर्स को पूरी जिंदगी में ऐसा रोल नहीं मिलता।’ ऋषि दा बांग्ला जबान के होने की वजह से मुझे राजा बोलते थे। उन्होंने प्रोडक्शन मैनेजर को बुलाकर कहा, ‘राजा को खादी भवन में लेकर जाओ। एक पायजामा और कुर्ता दिलाओ।’
इस बीच उन्होंने मुझे चेतावनी दी कि राजेश खन्ना चाहते थे कि फिल्म में शायर का रोल उनके गुरु वी.के. शर्मा करें और ऋषि दा माने नहीं, तो हो सकता है, वह तुमसे थोड़ा रूखा व्यवहार करें। हम स्टूडियो पहुंचे। शूट तैयार हुआ। मुझे एक शेर उसमें पढ़ना था। मैंने शॉट दिया और जब राजेश खन्ना ने वह शॉट देखा, तो मुझे बुलाकर कहा कि ‘तेरा शेर पढ़ने का अंदाज तो बिल्कुल कैफी आजमी साहब जैसा है’। यह मेरे लिए बहुत बड़ा कॉम्प्लिमेंट था। इस फिल्म के बाद भी मेरी जद्दोजहद कम नहीं हुई, क्योंकि इस तरह के रोल कम मिलते हैं।
मेरी झोली में तारीफें बहुत आईं, लेकिन काम नहीं मिला। मैंने कुछ पंजाबी फिल्में भी कीं। छोटे-छोटे रोल किए। मेरा मानना है कि जब आप संघर्ष करते हैं, तो आप किसी पर एहसान नहीं करते। फिल्म इंडस्ट्री में बतौर एक्टर घुसना बिल्कुल ऐसा ही होता है, जैसे सवा पांच बजे की लोकल ट्रेन, चर्च गेट स्टेशन से छूटती है, उसमें जगह नहीं होती। आपको जगह बनानी पड़ती है। आपको घुसना पड़ता है। कोई नहीं कहता कि आइए साहब, खुशामदीद। मेरी कोई बिसाद नहीं थी, जिस तरह से मुझे फिल्म ‘नमक-हराम’ मिली।
मैं तैयार हो गया और जब कॉस्ट्यूम पहनकर आया, तो राज कपूर साहब ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और बोले, ‘रजा साहब आप लग रहे हैं। स्क्रीन टेस्ट की कोई जरूरत नहीं है। आप कल से शूटिंग पर आ रहे हैं।’ फिल्म बड़ी हिट हुई थी। बस, उसके बाद रास्ते खुलते गए। मैं बहुत ज्यादा मशरूफ रहने लगा अपने काम में। तब मेरी मां कहती थीं कि तुम इतने-इतने घंटे क्यों काम करते हो? मैं उनसे यही कहता था, ‘देखिए मैंने 14 साल इंतजार किया है। करवटें ली हैं। मुझे वह 14 साल कवर करने हैं।’