नई दिल्ली| आंध्र प्रदेश में 1934 में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा के अग्रणी निर्देशकों में शुमार हैं। वह ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘मंडी’ और ‘भूमिका’ जैसी चर्चित फिल्मों के निर्माण से सिनेमा जगत में अपना खास मुकाम हासिल कर चुके हैं।
एक तरह से देखा जाए तो सत्यजीत रे के निधन के बाद श्याम बेनेगल ने ही उनकी विरासत को संभाला। रे के बाद का भारतीय सिनेमा बेनेगल के फिल्मों के इर्द-गिर्द ही घूमता दिखाई पड़ता है।
बेनेगल की फिल्में अपनी राजनीतिक और सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती हैं। अपनी फिल्म-गाथाओं को जरिया बनाकर वह समाज की चेतना को जगाने की कोशिश करते रहे हैं। खुद उन्हीं के शब्दों में ‘राजनीतिक सिनेमा तभी पनप सकता है, जब समाज इसके लिए मांग करे। मैं नहीं मानता कि फिल्में सामाजिक स्तर पर कोई बहुत बड़ा बदलाव ला सकती हैं, मगर उनमें गंभीर रूप से सामाजिक चेतना जगाने की क्षमता जरूर मौजूद है।’
 श्याम बेनेगल का करियर
श्याम बेनेगल का करियर
उन्होंने अपने करियर की शुरुआत विज्ञापन उद्योग से की। फिल्मों में अपनी उल्लेखनीय पारी की शुरुआत से पहले वह 900 से अधिक विज्ञापन फिल्में बना चुके थे। अर्थपूर्ण सिनेमा जब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था, तब उस दौर में आई बेनेगल की फिल्मों ने दर्शकों को तो आकर्षित किया ही, साथ ही अन्य फिल्मकारों को भी लगातार प्रेरित किया। 1966-1973 तक उन्होंने पुणे के एफटीआईआई में छात्रों को फिल्म निर्माण के बारे में भी पढ़ाया।
बेनेगल की फिल्मों ने केवल समानांतर सिनेमा को ही एक खास पहचान दिलाने में मदद नहीं की, बल्कि ‘अंकुर’, ‘निशांत’ और ‘मंथन’ जैसी उनकी आरंभिक फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी और स्मिता पाटिल जैसे बेहतरीन कलाकार भी दिए।
बेनेगल की हर फिल्म का अपना एक अलग अंदाज होता है। उनकी हास्य फिल्में भी भारतीय सिनेमा में अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब रहीं। उनकी हास्य फिल्मों में केवल हास्य ही शामिल नहीं है, बल्कि ये लोगों तक कोई न कोई सामाजिक संदेश भी पहुंचाती हैं।
बेनेगल ने 1200 से भी अधिक फिल्मों का सफल निर्देशन किया है। इनमें विज्ञापन, व्यावसायिक, वृतचित्र एवं टेलीफिल्में भी शामिल हैं।
उन्होंने 1974 में ‘अंकुर’ जैसी युग प्रवर्तक फिल्म बनाकर सिनेमा को एक नया आयाम दिया। इस फिल्म के साथ ही उन्होंने शबाना आजमी को रुपहले पर्दे पर उतारा। ‘अंकुर’ के लिए बेनेगल और शबाना दोनों को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया।
‘मंडी’ फिल्म बनाकर उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे ऐसे बोल्ड विषय पर भी फिल्म बना सकते हैं। धर्मवीर भारती के प्रसिद्ध उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पर आधारित इसी नाम से बनी उनकी फिल्म पितृसत्ता पर सवाल खड़े करती है, तो फिल्म ‘सरदारी बेगम’ समाज से विद्रोह कर संगीत सीखने वाली महिला की कहानी पेश करती है, जिसे समाज अलग-थलग कर देता है, तो वहीं ‘समर’ जाति प्रथा के मुद्दे को बेबाकी से उठाती है।
बेनेगल के रचनात्मक कौशल का यह जादू था कि उनके आलोचक भी उनके कायल हुए बिना नहीं रह सके। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बेनेगल के बारे में कहा था कि ‘उनकी फिल्में मनुष्य की मनुष्यता को अपने मूल स्वरूप में तलाशती हैं।’
सिनेमा जगत में अपने उल्लेखनीय योगदान के लिए बेनेगल को 1976 में पद्मश्री और 1961 में पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया था। इतना ही नहीं, 2007 में वे अपने योगदान के लिए भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च पुरस्कार ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ से भी नवाजे गए।
लंदन स्थित ‘साउथ एशियन सिनेमा फाउंडेशन’ (एसएसीएफ) द्वारा जून, 2012 में बेनेगल को ‘एक्सीलेंस इन सिनेमा’ अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। फाउंडेशन का मानना है कि बेनेगल ने भारतीय सिनेमा में एक नई तरंग का संचार किया है।
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