महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लग चुका है, लेकिन न तो सरकार बनाने का रास्ता खत्म हुआ है और न ही इसके लिए प्रयास खत्म हुए हैं। चूंकि राजनीति में संभावनाएं कभी खत्म नहीं होतीं, न ही यहां बनने वाले या बन सकने वाले समीकरणों की कोई सीमा होती है, इसलिए अब एक ऐसे फार्मूले पर काम हो रहा है जिसमें शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस तीनों के ही सपने पूरे हो जाएं। इसके लिए कई सुझाव पेश किए गए हैं।
शिवसेना शायद यह तय ही नहीं कर पा रही कि उसे घोषित मांग के अतिरिक्त और क्या क्या चाहिए? इसकी वजह शायद यह है कि शिवसेना को उम्मीद नहीं थी कि ऐसी स्थितियां बनेंगी और वह अपनी ही जिद के जाल में फंस जाएगी? उसे लग रहा था कि वह नखरा दिखाएगी तो भाजपा मान मनौवल करेगी, इसके बाद वह कुछ और अग्रिम धमकियां देकर मान जाएगी जिससे उसकी ताकत की खुशफहमी भी बनी रहेगी और कमजोरियों से निपटने के लिए सुरक्षित समय भी मिल जाएगा। पर शायद भाजपा और शिवसेना दोनों को ही एक दूसरे को लेकर यही गलतफहमी थी कि वह नहीं, अगला झुकेगा, लेकिन जब दोनों में से कोई नहीं झुका तो दोनों के हाथों से लगाम निकल गई।
शरद पवार ने एक बार भी शिवसेना की तारीफ में कुछ नहीं कहा, उलटे अपने अनुभवी अंदाज में यह कहते हुए उसे आईना दिखाया है कि मतदाताओं ने उन्हें और कांग्रेस को विपक्ष में बैठने का जनादेश दिया है। हालांकि हकीकत यह भी है कि इस दौरान शरद पवार न केवल लगातार शिवसेना के संपर्क में थे, बल्कि मीडिया की नजर में आई एक मुलाकात के अलावा भी वह शिवसेना के साथ मिलजुल रहे थे, लेकिन कल को अगर दोबारा चुनाव की नौबत आती है तो शरद पवार मतदाताओं को यह बताने और समझाने में जरा भी पीछे नहीं रहेंगे कि शिवसेना किसी भी कीमत पर सरकार बनाने के लिए बेचैन थी।