सेना प्रमुख की नियुक्ति पर विवाद बेवजह, लेकिन पारदर्शिता बरकरार रखना भी जरूरी

bipin-rawat-uttar-pradesh_1482065515तीन सीनियरों की अनदेखी कर सेना प्रमुख पद पर हुई लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत की नियुक्ति पर विवाद मामले को विशेषज्ञों ने बेवजह बताने केसाथ ही सरकार को सतर्कता बरतने की सलाह दी है। विशेषज्ञों का कहना है कि किसी परिस्थिति में कौन बेहतर सेना प्रमुख साबित होगा यह देखना सरकार का काम है।
लेफ्टिनेंट जनरल शांतनु चौधरी ने इस विवाद पर कहा कि आजाद भारत में यह पहला मौका नहीं है जब वरिष्ठता की अनदेखी की गई है। मेरा मानना है कि नियुक्ति मामले में स्पष्टता और पारदर्शिता जरूरी है। यह ठीक है कि आखिरकार सरकार को ही तय करना होता है कि इस पद के लिए उसकी नजर में सबसे उपयुक्त कौन साबित होगा।
मगर ऐसे निर्णय लेते यह सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि इससे सेना के ही विभिन्न विभागों में काम कर रहे कनिष्ठों के मन में संदेह पैदा न हो। चौधरी ने यह भी कहा कि विवाद से बचने के लिए सीवीसी सहित अन्य संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुख पद पर नियुक्ति जैसी प्रक्रिया अपनाई जा सकती है।

सरकार पर सवाल

मेजर जनरल अशोक मेहता ने नए सेना प्रमुख की नियुक्ति से उपजे विवाद पर गहरी नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि अगर सबसे वरिष्ठ को ही सेना प्रमुख बनाया जाना जरूरी है तो सरकार के पास सभी कमांडरों के नाम क्यों भेजे जाते हैं। बकौल मेहता इस समय देश के सामने आतंकवाद, उग्रवाद जैसी कड़ी चुनौतियां हैं। रावत को अशांत क्षेत्र में काम करने, इससे जुड़े बड़े ऑपरेशनों का नेतृत्व करने का शानदार अनुभव है। मुझे नहीं लगता कि रावत की सेना प्रमुख केरूप में नियुक्ति कर सरकार ने कोई गलती की है। जहां तक वरिष्ठता का सवाल है तो यह सवाल उठाने वालों ने 1983 में किस आधार पर जनरल सिन्हा की जगह उनसे जूनियर जनरल वैद्य को सेना प्रमुख बनाया था। लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत को थल सेनाध्यक्ष नियुक्त करने के फैसले पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी और लेफ्टिनेंट पी एम हरीज दोनों की वरिष्ठता को नजरअंदाज कर उन्हें इस पद पर तैनात किया गया। जहां तक ट्रैक रिकार्ड का सवाल है तो लेफ्टिनेंट जनरल बख्शी और हरीज भी कम नहीं हैं। 

 
 

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