प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर अपने गृहराज्य गुजरात के दौरे पर हैं. पिछले 10 महीने में ये 11वीं बार है जब मोदी गुजरात के दौरे पर गए हैं. राज्य में इस साल के आखिर में चुनाव होने हैं और अटकलें ये भी लगाई जा रही हैं कि वहां वक्त से पहले चुनाव कराए जा सकते हैं. ऐसे में मोदी के बार-बार गुजरात दौरे को पार्टी की चुनावी तैयारियों से जोड़कर भी देखा जा रहा है क्योंकि गांधीनगर की सत्ता उसके लिए प्रतिष्ठा का सवाल भी है और मोदी जिस ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत की बात करते हैं, बीजेपी ने सही मायने में उसकी शुरुआत गुजरात से ही की थी.
गुजरात में पिछले तकरीबन दो दशकों से राज कर रही बीजेपी और राज्य में उसके सबसे सफल मुख्यमंत्री रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए राज्य में विधानसभा चुनाव परीक्षा की घड़ी होंगे. गुजरात में पिछले तीन चुनावों की बात करें तो तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को एकतरफा जीत मिली और विपक्षी कांग्रेस को उसके मुकाबले तकरीबन आधी सीटों से ही संतोष करना पड़ा लेकिन इस बार पार्टी के लिए राह आसान नहीं मानी जा रही और इसकी वजहें भी हैं.
मोदी जैसे करिश्माई नेतृत्व का अभाव
2017 के आखिर में जब बीजेपी चुनाव मैदान में उतरेगी तो उसे सबसे ज्यादा कमी पिछले डेढ़ दशक से अपने सेनापति रहे नरेंद्र मोदी की ही खलेगी. मोदी के राज्य की सियासत से केंद्र में चले जाने की कीमत राज्य में पार्टी और सरकार पिछले तीन साल से चुका रही है. खास बात ये है कि पीएम नरेंद्र मोदी के बाद अमित शाह के भी दिल्ली में आ जाने से गुजरात बीजेपी के पास ऐसा कोई करिश्माई चेहरा नहीं बचा है जो पार्टी और सरकार को उस रुतबे के साथ आगे ले जा सके. इसके अलावा मोदी ने राज्य में जो बड़ी लकीर खींची है उसकी तुलना में भी बाकी नेता बौने नजर आ रहे हैं, फिर चाहे वो आनंदी बेन पटेल हों या फिर उनकी जगह मुख्यमंत्री बनाए गए विजय रुपाणी.
पाटीदारों के उग्र तेवर
2014 के लोकसभा चुनाव और नरेंद्र मोदी के सीएम बनने के बाद आनंदी बेन पटेल को गुजरात का नया मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन पटेल इस कुर्सी पर ज्यादा आनंद के साथ नहीं रह सकीं और उनके कार्यकाल में आरक्षण की मांग को लेकर पाटीदारों का अभूतपूर्व आंदोलन शुरू हुआ. इस आंदोलन के नेता बनकर उभरे युवा हार्दिक पटेल. जुलाई में 24 साल के हो रहे हार्दिक पटेल ने 2015 के आखिर में ऐसा आंदोलन छेड़ा कि आनंदी बेन पटेल की सरकार हिल गई. हालांकि आंदोलन के हिंसक रूप ले लेने से हार्दिक को जेल की हवा खानी पड़ी लेकिन इस आंदोलन ने बीजेपी सरकार और राज्य के पटेलों को आमने-सामने ला खड़ा किया. गौरतलब है कि राज्य में पटेलों की आबादी तकरीबन 20 फीसदी है. इतने बड़े वर्ग की नाराजगी ने बीजेपी के लिए खतरे की घंटी बजा दी. इसी का नतीजा हुआ कि आनंदी बेन पटेल को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी.
दलितों का आंदोलन
पटेलों के उग्र आंदोलन को बीजेपी ने जैसे-तैसे मंद करने में सफलता पाई तो 11 जुलाई 2016 को ऊना में दलितों के साथ गोरक्षकों की मारपीट की ऐसी तस्वीरें सामने आईं जिसने देशभर में दलितों को गुस्से में भर दिया. इस घटना के विरोध में गुजरात के दलितों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इस विरोध को राज्य की विपक्षी पार्टियों और बीजेपी विरोधियों का भरपूर साथ मिला. पिछले साल 15 अगस्त को ऊना में ही ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन किया गया जिसमें सिर्फ दलितों ने ही नहीं बल्कि मुस्लिमों ने भी एकजुट होकर सरकार के खिलाफ हुंकार भरी. इस विरोध प्रदर्शन में गूंजे जय भीम के नारों ने गुजरात बीजेपी की नींद उड़ा दी है. ये प्रदर्शन खासकर उस समय हुआ जब बीजेपी और आरएसएस देशभर में दलितों को खुद से जोड़ने की कोशिशों में जुटे थे.
दो दशकों का एंटी इंकबैंसी
बीजेपी दो दशकों से गुजरात की सत्ता पर काबिज है. कांग्रेस उसके मुकाबले काफी पिछड़ गई है और वापसी को बेताब है. अब तक नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर चेहरे के सामने कांग्रेस का हर दांव बेकार ही साबित हुआ है लेकिन इस बार चुनाव में मोदी उसके सामने नहीं होंगे. साथ ही पटेलों, दलितों, अल्पसंख्यकों का साथ पंजे को मिलने की उम्मीद है. ऐसे में कांग्रेस के पास अपने रिवाइवल का ये बेहतरीन मौका है. बीजेपी के खिलाफ इस समय जिस तरह विपक्षी पार्टियां एकजुट होने की तैयारी कर रही है उससे इस बात की संभावना ज्यादा है कि ऐसी छोटी पार्टियां जो अब तक कांग्रेस के लिए वोट कटुआ साबित होती रही हैं, इस बार उसके साथ मैदान में उतरेंगी. इससे राज्य में बीजेपी के समीकरण बिगड़ सकते हैं. यही वजह है कि पार्टी नरेंद्र मोदी के बार-बार राज्य में दौरे करवाकर माहौल को अभी से अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है.