बहुजन समाज पार्टी के पास इस वक्त एक भी लोकसभा सीट नहीं है, फिर भी मायावती कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से अच्छी सियासी बारगेनिंग कर रही हैं. क्यों उनके एक बयान पर कांग्रेस की ओर से उन्हें पीएम पद का प्रत्याशी बनाने के संकेत दिए जा रहे हैं? जब भी उनसे कोई गठबंधन की बात चलाता है तो एक रटा रटाया बयान आता है कि बीएसपी ‘सम्मानजनक’ सीटें मिलने पर ही ऐसा करेगी. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सियासत में संख्या बल और वोटबैंक सबसे महत्वपूर्ण होता है. मायावती के पास वोटबैंक और उसका संख्या बल खड़ा नजर आ रहा है, इसीलिए उनकी बारगेनिंग पावर दूसरी पार्टियों के मुकाबले ज्यादा है. इसी की बदौलत वो राजनीतिक के शिखर पर जाने का ख्वाब पाले हुए हैं.
नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद लगातार बीजेपी से हार रहे विपक्षी दलों को संजीवनी तब मिली जब मायावती के सपोर्ट से गोरखपुर और फूलपुर जैसी महत्वपूर्ण सीट समाजवादी पार्टी ने योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य से छीन ली. इसमें सबसे बड़ा योगदान बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं का माना गया. दोनों सीटें जीतने के कुछ ही घंटे बाद अखिलेश यादव मायावती के घर यूं ही नहीं गए. वह जानते थे कि बसपा का वोटर मन से उनके उम्मीदवारों के साथ खड़ा हुआ था. वोट शिफ्टिंग देखते हुए अखिलेश यादव ने मायावती की तरफ हाथ बढ़ाया और दोनों ने साथ चुनाव लड़ने की बात पक्की कर ली.
बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ऐसा मानती रही हैं कि दलित वोटों पर उनका सबसे ज्यादा हक है. बसपा नेताओं का मानना है कि मायावती अपने काम की वजह से इस दबे-कुचले वर्ग में राजनीतिक उत्कर्ष का प्रतीक हैं. इसीलिए उनकी एक आवाज पर दलित गोलबंद हो जाते हैं. लेकिन समय-समय पर ये भी सवाल उठता रहा है कि क्या दलित वोटों पर सिर्फ मायावती का ही एकाधिकार है या फिर कोई और ऐसा नहीं है जिस पर दलित भरोसा कर पाएं?
इस सवाल का जवाब गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में लोगों को मिल गया. इसके बाद बसपा की सियासी बारगेनिंग पावर काफी बढ़ गई. विपक्ष और खासतौर पर कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर यदि उसे दलितों का वोट लेना है तो मायावती को साधना होगा. क्योंकि मायावती के अलावा अन्य दलित नेता जैसे रामविलास पासवान, रामदास अठावले, उदित राज, अशोक दोहरे और सावित्री बाई फूले आदि बीजेपी के साथ हैं. कांग्रेस के मौजूदा दलित नेताओं की अपने समाज में वैसी अपील नहीं है जैसी मायावती की है.
गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी कांग्रेस के साथ समझौता करके लड़ना चाहती थी, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया. बीएसपी के नेताओं का कहना है कि इससे कांग्रेस को ज्यादा नुकसान हुआ. मायावती ने जिन प्रदेशों में ज्यादा ध्यान नहीं दिया है उनमें भी उनकी पार्टी को दलितों का वोट मिलता रहा है और उनके एक-दो विधायक बनते रहे हैं.
इसीलिए अब कांग्रेस ने इस गलती को सुधारते हुए समय रहते मध्य प्रदेश में बसपा से हाथ मिला लिया है. पार्टी को लगता है कि दलित वोटों से उसका बेड़ा पार हो सकता है. कर्नाटक में मायावती ने जनता दल सेक्युलर के साथ समझौता किया था. उसका एक विधायक जीता है और वह मंत्री है.
सियासत के ये संकेत कुछ कहते हैं!
एचडी कुमार स्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में मायावती और सोनिया गांधी की ट्यूनिंग वाली फोटो कई पार्टियों को अब तक बेचैन कर रही है. दूसरी ओर बसपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जय प्रकाश सिंह द्वारा राहुल गांधी के खिलाफ टिप्पणी से नाराज मायावती ने उन्हें पार्टी से चलता कर दिया. यही नहीं उस कार्यक्रम में मौजूद सांसद वीर सिंह को भी राष्ट्रीय महासचिव व नेशनल कोर्डिनेटर पद से हटा दिया. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह दोनों घटनाक्रम बता रहे हैं कि कांग्रेस और बसपा में अच्छी आपसी समझ विकसित हुई है और इसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं.
बसपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधींद्र भदौरिया कहते हैं “हमारी सीट एक भी न आई हो पर 2014 के लोकसभा चुनाव के वोट प्रतिशत के लिहाज से हम भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरी बड़ी पार्टी थे. जब चुनाव होगा तो वोट तो गिने जाएंगे. इसी तरह 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में हम हारे जरूर पर बीजेपी के बाद हम वोट प्रतिशत में दूसरे नंबर पर थे. राजस्थान, मध्य प्रदेश में हमारा अच्छा वजूद है. ओडिशा तक में हमारा एमपी जीता हुआ है. बातें कोई भी करे लेकिन दलितों में मायावती से बड़ा कोई चेहरा नहीं है. इसलिए हमारी बारगेनिंग पावर ज्यादा है. वोट को ट्रांसफर करवाने की हमारे पास ताकत है. इसीलिए 2019 में मायावती जी का फैक्टर सबसे महत्वपूर्ण है.”
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मायावती अपने कोर वोट बैंक की वजह से ही अपनी शर्तों पर अड़ती हैं. इसी की वजह से ही विपक्ष इस कोशिश में है कि 2019 में पूरा दलित समाज मायावती के सहारे उसके साथ खड़ा हो. इस समय बीजेपी के सामने बड़ा सवाल ये है कि जब सपा की साइकिल, बसपा का ‘हाथी’ और कांग्रेस का ‘हाथ’ साथ-साथ आएंगे तो क्या होगा?
राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का प्रदर्शन
आइए जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी बसपा की सियासी हैसियत आखिर यूपी से बाहर कितनी है? दलित अस्मिता के नाम पर उभरी बसपा ने अपना पूरा ध्यान यूपी की राजनीति में लगाया है. लेकिन जिन प्रदेशों में दलित वोट ज्यादा हैं वहां पर अपने प्रत्याशी जरूर उतारते रही है.
हमने चुनाव आयोग के आंकड़ों का विश्लेषण किया तो पाया कि मध्य प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में उसे न सिर्फ वोट मिले हैं बल्कि उसने विधानसभा में सीट पक्की करने में भी कामयाबी पाई है. यूपी से बाहर बसपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1 से लेकर 11 विधायकों तक रहा है.
एमपी, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली में मजबूत
दिल्ली जैसे राज्य जहां 16.75 फीसदी दलित हैं, वहां बसपा ने 2008 में 14.05 फीसदी तक वोट हासिल किया था, जबकि उसके वरिष्ठ नेताओं ने यहां उत्तर प्रदेश जैसी मेहनत नहीं की थी. बाद में दलित वोट कभी कांग्रेस तो कभी आम आदमी पार्टी के पास शिफ्ट होता रहा. सबसे ज्यादा दलित आबादी वाले राज्य पंजाब में जब 1992 में उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था तो उसे 9 सीटों के साथ 16.32 फीसदी वोट मिले थे. पार्टी के संस्थापक कांशीराम पंजाब के ही रहने वाले थे. मध्य प्रदेश और राजस्थान में वह समीकरण बिगाड़ने की हैसियत रखती है. इसलिए यहां बीएसपी कांग्रेस के लिए जरूरी नजर आ रही है.
हमने जिन राज्यों में बसपा को मिले वोटों का विश्लेषण किया उनमें दलित 15 से लेकर 32 फीसदी तक है. दलितों की पार्टी माने जाने वाली बसपा इन वोटों का स्वाभाविक हकदार बताती है. हालांकि, 2014 के आम चुनावों में मोदी लहर की वजह से पंजाब में भी उसे सिर्फ 1.91 फीसदी ही वोट मिले. जबकि पूरे देश में उसे 4.14 फीसदी वोट हासिल हुआ था.
वैसे बसपा नेता इसे खराब प्रदर्शन नहीं मानते. गैर हिंदी भाषी राज्यों आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी बसपा का कभी एक-एक विधायक हुआ करता था. विपक्ष को दलित वोटों की दरकार है, इसलिए बसपा उससे अपनी शर्तों पर ही समझौता कराना चाहती है.
कांग्रेस-बसपा, कौन किसकी मजबूरी?
वरिष्ठ पत्रकार आलोक भदौरिया कहते हैं “ये कांग्रेस के अस्तित्व की लड़ाई है. जिन राज्यों में कभी कांग्रेस बहुत मजबूत थी उनमें अब वो संघर्ष कर रही है. ऐसे में उसे बसपा का साथ चाहिए. उसने गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में उदाहरण देखा है कि अगर वोटों का बिखराव रोकना है तो गठबंधन करना पड़ेगा. सत्ता पाने की छटपटाहट दोनों में है, क्योंकि ज्यादा दिन सत्ता से दूरी इन पार्टियों की आर्थिक सेहत के लिए ठीक नहीं है. इसलिए एक साथ आना दोनों की जरूरत भी है मजबूरी भी.”
…तो और बड़ी नेता होतीं मायावती!
मायावती पर ‘बहनजी: द राइज एंड फॉल ऑफ मायावती’ नामक किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं “मायावती को जनता ने 2014 के लोकसभा चुनाव में नकार दिया था. फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में इसका बहुत खराब प्रदर्शन देखने को मिला. इसलिए बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए सपा-बसपा-कांग्रेस के गठबंधन की जरूरत है. साथ में राष्ट्रीय लोकदल के अजीत सिंह को लेना चाहिए.”
“बसपा के राजनीतिक उदय के समय उसमें कई राज्यों के दलितों ने अपना नेता खोजा था, लेकिन मायावती ने न तो ध्यान दिया और न ही कांग्रेस और बीजेपी की तरह क्षेत्रीय नेता पैदा किए. जिसके सहारे उनकी राजनीति आगे बढ़ सकती थी. पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बसपा के आगे बढ़ने का बहुत स्कोप था लेकिन क्षत्रपों के अभाव में वह धीरे-धीरे जनाधार खोती गई. यही वजह है कि चंद्रशेखर और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं का उभार हो रहा है जो मायावती की सियासी जमीन खा सकते हैं. हालांकि ये इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में कितने सफल होंगे यह नहीं कहा जा सकता.”बोस के मुताबिक “जमीनी स्तर पर सपा-बसपा के कार्यकर्ता मिल रहे हैं यह गोरखपुर, फूलपुर लोकसभा उपचुनाव के परिणाम से साबित हो गया है. सपा-बसपा के साथ आने से मुस्लिम वोट का विभाजन नहीं होगा. इसका फायदा इस गठबंधन को मिलेगा.”
हालांकि, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक प्रोफेसर एके वर्मा कहते हैं कि “बीजेपी में दलितों ने अपनी जगह बना ली है. जहां तक मायावती की बात है तो उनसे जाटव तो खुश है लेकिन गैर जाटव दलित संतुष्ट नहीं हैं. इस समय अगर सबसे महत्वपूर्ण चुनाव क्षेत्र यूपी की बात करें तो रिजर्व सीटों वाले सभी सांसद बीजेपी के हैं. 85 में से 75 रिजर्व सीटों पर बीजेपी के विधायक हैं. इसीलिए बीजेपी दलितों तक अपनी बात पहुंचा पा रही है. मुझे नहीं लगता कि बीजेपी को दलित वोट नहीं मिलेगा.”
राजनीति में क्यों इतने महत्वपूर्ण हैं दलित?
2011 की जनगणना के मुताबिक देश में अनुसूचित जाति कुल जनसंख्या का 16.63 फीसदी और 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति के लोग हैं. 150 से ज्यादा संसदीय सीटों पर एससी/एसटी का प्रभाव माना जाता है. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 46,859 गांव ऐसे हैं जहां दलितों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है. 75,624 गांवों में उनकी आबादी 40 फीसदी से अधिक है.
देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की 84 सीटें एससी के लिए जबकि 49 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. इसलिए सबकी नजर दलित वोट बैंक पर लगी हुई है. इसी वोटबैंक के भरोसे मायावती चार बार यूपी की सीएम बन चुकी हैं.
रामबिलास पासवान, उदित राज, रामदास अठावले जैसे दलित नेता उभरे हैं. चंद्रशेखर आजाद और जिग्नेश मेवाणी जैसे नए दलित क्षत्रप भी इसी संख्या की बदौलत पैदा हुए हैं. लेकिन सबसे बड़ी नेता मायावती ही मानी जाती हैं. क्योंकि उनकी अपील राष्ट्रीय स्तर पर काम करती है.