हरिद्वार: राजाजी टाइगर रिजर्व की चीला रेंज की चकाचौंध में हरिद्वार वन प्रभाग का झिलमिल झील क्षेत्र कहीं खो गया है। उत्तराखंड में बारहसिंगा काएकमात्र वास स्थल होने के साथ ही झील क्षेत्र में हिरण प्रजाति के चीतल, सांभर, काकड़ व पांडा की भी अच्छी-खासी मौजूदगी है। यही नहीं, झील क्षेत्र में अमूमन बाघ का मूवमेंट भी देखने को मिलता है।
बावजूद इसके सैलानियों की कम संख्या वन विभाग के अधिकारियों के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। हरिद्वार वन प्रभाग की रसियाबड़ रेंज चंडीघाट पुल से 20 किलोमीटर की दूरी पर पड़ती है। यहां गंगा नदी के बायें तट पर 3783.5 हेक्टेयर कटोरीनुमा दलदली क्षेत्र में फैले झिलमिल झील क्षेत्र में हिरण की कई प्रजाति पाई जाती हैं। जैव विविधता से भरपूर इस झील क्षेत्र में एशियाई हाथी, नील गाय, तेंदुआ सहित यदा-कदा बाघ की भी आवाजाही बनी रहती है। इसके अलावा शीतकाल के दौरान यहां डेढ़ सौ से अधिक प्रजाति के प्रवासी परिंदें भी डेरा डाले रहते हैं।
झील क्षेत्र की मुख्य पहचान बारहसिंगा के प्रवास स्थल के रूप में है। प्रदेश में हिरण की इस दुर्लभ प्रजाति के लिए यही अंतिम आश्रय स्थल है। यही वजह है कि राज्य सरकार ने वर्ष 2005 में इसे संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया था। मगर, सरकारी उदासीनता और प्रचार-प्रसार की कमी के चलते आज भी सैलानियों के रुख झील की ओर नहीं हो पा रहा। इसके विपरीत राजाजी टाइगर रिजर्व की चीला रेंज में देशी-विदेशी सैलानियों का जमावड़ा लगा रहता है।
बंगले से ही लौट जाते हैं वीवीआइपी
सरकार चीला रेंज में पर्यटक सुविधाएं जुटाने के लिए प्रतिवर्ष भारी-भरकम बजट खर्च करती है। जबकि, झिलमिल झील को नाममात्र का ही बजट मिल पाता है। यही वजह है कि झील क्षेत्र में सीजन के छह माह में सिर्फ 250 से 300 सैलानी ही पहुंच पाते हैं। हालांकि, यहां अंग्रेजों के समय बने आलीशान बंगले में ठहरने को वीवीआइपी की लाइन लगी रहती है। मगर, ये वीवीआइपी बंगले से ही रुखसत हो लेते हैं। कारण, झिलमिल झील में सफारी की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है।
सफारी को चीला से मंगाते हैं वाहन
रसियाबड़ के वन क्षेत्राधिकारी प्रदीप उनियाल बताते हैं कि प्रसार-प्रचार न होने के कारण झिलमिल झील में सैलानियों की संख्या सीमित है। हालांकि, पूरी कोशिश की जा रही कि ज्यादा से ज्यादा सैलानी इधर का रुख करें। सफारी करने वाले सैलानियों के लिए चीला से वाहन भी मंगाए जाते हैं।
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