राकेश टिकैत के आंसुओं से बदले माहौल में चरण सिंह के वारिसों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश और किसान राजनीति का अपना खोया हुआ किला वापस मिलता हुआ लग रहा

2019 का लोकसभा चुनाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश की किसान राजनीति के लिए खासा निर्णायक था। लंबे समय तक देश की राजनीति में किसानों के एक छत्र नेता रहे चौधरी चरण सिंह के वारिस अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी दोनों ही इस इलाके की मुजफ्फरनगर और बागपत सीट से लोकसभा चुनाव लड़े। लेकिन पुलवामा और बालाकोट का राष्ट्रवादी ज्वार चरण सिंह की किसान विरासत पर भारी पड़ा और दोनों ही भाजपा उम्मीदवारों के हाथों चुनाव हार गए।

उनकी इस हार से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट पट्टी की राजनीति से चरण सिंह परिवार का वर्चस्व लगभग खत्म हो गया। लेकिन 26 जनवरी को लाल किला पर हुई शर्मनाक घटना से दबाव में आए किसान आंदोलन के बाद भाकियू नेता राकेश टिकैत के आंसुओं से बदले माहौल में चरण सिंह वारिसों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश और किसान राजनीति का अपना खोया हुआ किला वापस मिलता हुआ लग रहा है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अब इस बात पर अफसोस कर रहे हैं कि उन्होंने अपने मसीहा चौधरी चरण सिंह के वारिसों को हराकर भारी भूल की, जिसका नतीजा उन्हें अब भुगतना पड़ रहा है कि किसानों ने जिन्हें जिताकर भेजा था वो इस संघर्ष के वक्त में सत्ता की गोद में बैठे हैं। और किसानों पर आई आपदा की इस घड़ी में आखिरकार चरण सिंह के बेटे और पोते ने ही उनका साथ दिया और लगभग हारी जा चुकी बाजी को पलट दिया। मीडिया से बातचीत में अजित सिंह ने कहा कि उनका परिवार हमेशा किसानों के हक की लड़ाई लड़ता रहा है और राष्ट्रीय लोकदल की बुनियाद ही किसान हैं। इसलिए किसानों के हक की लड़ाई में वह और रालोद बिल्कुल भी पीछे नहीं हटेंगे।

बागपत से जयंत को हराने वाले सत्यपाल सिंह पिछली मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री थे और मुजफ्फरनगर से अजित सिंह से जीतने वाले संजीव बालियान तब भी मंत्री रहे थे और अब भी केंद्रीय मंत्री हैं। लेकिन पिछले 62 दिनों से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों में अब इस बात का पछतावा है कि उन्होंने चरण सिंह की विरासत को चुनाव में हराकर अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारी है। शुक्रवार को मुजफ्फरनगर जिले के सिसौली गांव (स्वर्गीय किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का पैतृक गांव और भारतीय किसान यूनियन का मुख्यालय) में आयोजित किसान महापंचायत में मंच से भाकियू अध्यक्ष और राकेश टिकैत के बड़े भाई नरेश टिकैत ने स्वीकार किया कि किसानों से लोकसभा चुनाव में भारी गलती हुई जो उन्होंने चौधरी अजित सिंह को हरा दिया।अजित और जयंत की पराजय के बाद पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर भाजपा का दबदबा हो गया और अजित सिंह और जयंत लगभग हाशिए पर चले गए।

लेकिन गुरुवार की रात जब दिल्ली और उत्तर प्रदेश की पुलिस 26 जनवरी को लाल किला में हुई घटना से आहत और दबाव में आए किसानों से गाजीपुर बॉर्डर खाली कराने पर आमादा थी। उनके नेता राकेश टिकैत लगभग गिरफ्तारी देकर मैदान छोड़ने वाले थे और राकेश टिकैत के भाई व भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने धरना उठाने का एलान कर दिया था, तब अचानक एक बार फिर चौधऱी चरण सिंह की विरासत किसानों को संजीवनी देने के लिए मैदान में आ गई। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी ने राकेश टिकैत और नरेश टिकैत दोनों से फोन पर बात की और उन्हें मैदान न छोड़ने की सलाह दी।

दरअसल गणतंत्र दिवस पर किसानों की ट्रैक्टर परेड पर पूरे देश की निगाहें थीं और किसान भी उत्साह से लबरेज थे। उम्मीद थी कि सुबह राजपथ पर जवानों की शानदार परेड देखने के बाद दोपहर को दिल्ली पुलिस और किसान संगठनों के बीच बनी सहमति से तय तीनों मार्गों पर किसानों की जानदार ट्रैक्टर परेड का अद्भुत नजारा देश देखेगा। लेकिन हुआ कुछ और। सुबह जब राजपथ पर गणतंत्र दिवस की पारंपरिक परेड चल रही थी, टीकरी, सिंघु और गाजीपुर बार्डरों से किसानों और पुलिस के टकराव की खबरें टीवी चैनलों पर फ्लैश होने लगीं और राजपथ की परेड खत्म होते होते आईटीओ का हिंसक नजारा सामने आ गया और फिर लाल किला की दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक घटना देश ने देखी।

हालांकि जिन तीन मार्गों को किसानों की ट्रैक्टर परेड के लिए निर्धारित किया गया था, उनमें पूरी परेड शांतिपूर्ण तरीके से निकली लेकिन किसानों के एक समूह के रास्ता भटकने या बदलने से आईटीओ और लाल किला पर जो हुआ उसने करीब 90 फीसदी शांतिपूर्ण परेड पर पानी फेर दिया। इसके बाद पूरे किसान आंदोलन को ही सत्ता और उसके प्रचार तंत्र ने कठघरे में खड़ा कर दिया। एक तरफ केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने किसान संगठनों से बातचीत जारी रहने की बात कही तो दूसरी तरफ भाजपा नेताओं और मीडिया एक बड़े हिस्से ने लाल किला और तिरंगे के अपमान को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया कि किसान संगठन भी भारी दबाव में आ गए।

लाल किला पर हुड़दंगियों के घुसने से रोकने में नाकाम रही दिल्ली पुलिस ने आननफानन सभी प्रमुख किसान नेताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर लिए। प्रचार तंत्र ने पूरे किसान आंदोलन और उसके नेताओं को ही देश विरोधी बताते हुए जनमानस को उसके खिलाफ करने के लिए पूरा जोर लगा दिया। इससे किसान नेता भारी दबाव में आ गए। हालांकि उन्होंने पूरे घटनाक्रम की निंदा की और लाल किला पर हुई घटना और उसे अंजाम देने वाले लोगों से खुद को अलग कर लिया। लेकिन उनकी यह बात प्रचारतंत्र के नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई। इसके बावजूद सरकार ने अपनी तरफ से किसानों के साथ बातचीत जारी रखने की बात दोहराई।

केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने यह एलान किया कि सरकार किसानों से बातचीत जारी रखने के अपने इरादे पर कायम है और उसे अपने प्रस्ताव पर किसानों की राय का इंतजार है।किसान सूत्रों के मुताबिक गणतंत्र दिवस की घटना के बाद पुलिस कार्रवाई के दबाव में आ चुके राकेश टिकैत गुरुवार की शाम तक बुरी तरह टूट चुके थे और वह किसी तरह से बीच के रास्ते की तलाश में थे, क्योंकि गाजीपुर बार्डर से किसानों की वापसी का सिलसिला तेज हो गया था। टिकैत के साथ जिला प्रशासन की बातचीत भी शुरू हो गई थी। इसी बीच लोनी के भाजपा विधायक नंदकिशोर गुर्जर अपने कुछ समर्थकों के साथ वहां पहुंच गए और उन्होंने किसानों के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी।

इससे राकेश टिकैत पर दबाव और बढ़ गया। प्रशासन से बातचीत करके राकेश टिकैत गिरफ्तारी देकर बीच का रास्ता निकालने के फार्मूले पर लगभग सहमत हो चुके थे कि तभी उनके भाई नरेश टिकैत ने मुजफ्फरनगर से यह बयान दे दिया कि धरना खत्म कर दिया गया है। इसके बाद राकेश टिकैत का सब्र टूट गया और वह फूट-फूट कर रो पड़े। इसी बीच अजित सिंह के साथ राकेश टिकैत ने फोन पर बात की। अजित सिंह ने उन्हें साथ देने का भरोसा दिया और कहा कि किसानों की यह लड़ाई अगर अभी टूट गई तो आगे किसान फिर कभी खड़े नहीं हो सकेंगे। इसलिए उन्हें डटे रहना चाहिए। अजित सिंह ने यह भी कहा कि वह जयंत को किसानों के बीच भेजेंगे और रालोद के कार्यकर्ता पूरी ताकत से किसानों के साथ आ जुटेंगे।

इसके साथ ही अजित सिंह ने नरेश टिकैत से भी बात करके उन्हें धरना खत्म न करने की सलाह देते हुए पंचायत बुलाने का सुझाव दिया। साथ ही सार्वजनिक रूप से किसानों का समर्थन करने का एलान भी कर दिया। फिर जयंत चौधऱी ने भी राकेश और नरेश टिकैत से बात की। बताया जाता है कि इसके बाद अजित सिंह मेरठ, मुजफ्फनगर, बागपत, शामली, मुरादाबाद, बिजनौर, बुलंदशहर, हापुड़, आगरा, अलीगढ़ आदि जिलों में अपने दल के तमाम नेताओं कार्यकर्ताओं को किसानों के समर्थन में खुल कर आने का निर्देश दे दिया। उधर राकेश टिकैत का रोने वाला वीडियो वायरल हो गया और उससे मामला और गरम हो गया।

मेरठ, बागपत, शामली, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, मुरादाबाद, बुलंदशहर आदि जिलों के कई किसान तो रात में ही गाजीपुर बॉर्डर के लिए निकल पड़े और सुबह तक वहां फिर किसानों का जमावड़ा जम गया। सुबह ही जयंत चौधरी ने गाजीपुर बॉर्डर जाकर राकेश टिकैत और धरने पर बैठे किसानों की हौसला अफजाई की। इसके बाद गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों को समर्थन देने के लिए दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू समेत कई नेता जा पहुंचे। आंदोलनकारी किसान संगठन अब इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि उनका संघर्ष जिस दौर में पहुंच गया है और सरकार जिस तरह के हथकंडों से आंदोलन को तोड़ना और खत्म करना चाहती है, उसे देखते हुए अब किसानों को राजनीतिक दलों के समर्थन से परहेज नहीं करना चाहिए।

उधर जिस तरह से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, राजद नेता तेजस्वी यादव, एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्दधव ठाकरे समेत अनेक नेताओं ने किसानों के समर्थन में लगातार बयान दिए हैं, संसद में लगभग सभी विपक्षी दलों ने किसानों के समर्थन और कृषि कानूनों के विरोध में राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार किया, उससे किसान आंदोलन के और व्यापक होने की संभावना बढ़ गई है। उधर दिल्ली के तीनों बॉर्डर, जहां किसानों के धरने चल रहे हैं, वहां स्थानीय जनता के नाम से उपद्रवी भीड़ ने पुलिस की मौजूदगी में सीधे किसानों का विरोध किया है।

गाजीपुर में तो भाजपा के दो विधायकों ने ही इस भीड़ की अगुआई की और एक विधायक ने बाकायदा गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर और बयान देकर धरना दे रहे किसानों को देशद्रोही और आतंकवादी बताते हुए उनकी गिरफ्तारी और फॉस्ट ट्रैक कोर्ट के जरिए मुकदमे चलाकर फांसी देने की मांग करते हुए यह भी कहा है कि अगर सरकार खुद एसा नहीं करना चाहती तो उन्हें अनुमति दे कि वह स्थानीय लोगों और अपने समाज की मदद से इन किसानों से गाजीपुर बॉर्डर खाली करा देंगे। उक्त विधायक ने सरकार से किसानों को गोली मारने के आदेश देने को भी कहा है। टीकरी बॉर्डर में भी दो दिन से किसानों के खिलाफ कथित स्थानीय लोगों की भीड़ नारे बाजी कर रही है, जबकि सिंघु बॉर्डर में तो ऐसे ही कथित स्थानीय लोगों ने किसानों पर हमला करके उनके तंबू उखाड़ने की कोशिश की जिसका किसानों ने भी विरोध किया और दोनों में हिंसक झड़प भी हुई और एक पुलिस अधिकारी घायल हो गया।

गणतंत्र दिवस से पहले तक दिल्ली की तीनों सीमाओं पर धरना देने वाले किसानों के बीच वही मंजर था, जो लगभग 35 साल पहले मेरठ से लेकर भोपा और दिल्ली के किसान धऱनों में दिखाई देता था। वैसी ही पगड़ी-टोपी वाले किसान जगह जगह झुंड बनाकर बैठे या खड़े होकर बतियाते मिलते दिखे। कहीं दाल-चावल बंट रहा था तो कहीं पूड़ी-सब्जी के लिए भीड़ दिखी। किसी कोने पर हलवा तो किसी जगह खीर की धूम मची रही। सड़कें किसानों की बस्तियों में तब्दील हो गईं, जिनमें तंबुओं के भीतर और ट्रैक्टरों के ऊपर किसानों के जमावड़े लग गए। न जाने कितने तिरंगे हवा में फहराते रहे और कहीं देशभक्ति के गाने गूंजते रहे, तो कहीं रागिनी की धुन पर किसान मस्त दिखे। आजाद भारत के इतिहास में सबसे लंबे चलने वाले किसान आंदोलन का यह दृश्य आप सिंघु बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर या गाजीपुर बॉर्डर पर कहीं भी देख सकते थे। और शायद किसी भी गणतंत्र दिवस पर इतनी बड़ी संख्या में तिरंगे झंडे दिल्ली में नहीं फहराए गए होंगे, जितने इस बार किसानों की उस ट्रैक्टर परेड में फहराए गए, जो करीब 90 फीसदी शांतिपूर्ण रही। लेकिन आईटीओ और लाल किला की घटना ने उसे ढक दिया।

यूं तो किसानों का दिल्ली की सीमाओं पर यह धरना 26 नवंबर से ही शुरू हो चुका था, लेकिन शुरुआत में लगा कि मामला हफ्ते पखवारे में निबट जाएगा। लेकिन जब करीब दो महीने हो गए और सरकार के साथ दस दौर की बातचीत में भी कोई समाधान निकलता नहीं दिखा, तब यह उत्सुकता जागी कि क्या इतने लंबे वक्त के बाद किसानों का हौसला टूट गया या बरकरार है। सरकारी तंत्र और सत्ता के संचालकों को उम्मीद थी कि दस से 15 दिनों बाद किसानों का हौसला टूटने लगेगा और वो किसी न किसी तरह सरकार से थोड़ी बहुत रियायत लेकर वापस जाने की कोशिश करेंगे। इसलिए सरकार ने बातचीत को लंबा खींचा ताकि किसान थक जाएं और घर वापसी का दबाव अपने संगठनों के नेताओं पर बनाएं। लेकिन सरकार का यह दांव उल्टा पड़ गया। किसानों का हौसला टूटना तो दूर उलटे उनकी तादाद और जोश दोनों बढ़ने लगे। जैसे-जैसे बातचीत के दौर आगे बढ़ते गए दिल्ली की सीमाओं पर किसानों और ट्रैक्टरों की भीड़ बढ़ती गई। सिंघु, टीकरी और गाजीपुर बॉर्डरों के अलावा राजस्थान और हरियाणा होकर दिल्ली आने वाले रास्ते के शाहजहांपुर बॉर्डर पर भी किसानों के टेंट लग गए।

सरकार और उसके प्रचार तंत्र ने किसानों के इस आंदोलन को पहले नजरंदाज किया। फिर उसे खालिस्तानी, चीन पाकिस्तान प्रायोजित टुकड़े-टुकड़े गैंग, नक्सली और माओवादी, आढ़तियों और बिचौलियों का आंदोलन जैसे विशेषणों से नवाजते हुए बदनाम करने की पूरी कोशिश की। यहां तक कि सत्ताधारी दल के मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और भाजपा शासित राज्यों के मंत्रियों और सांसदों, विधायकों ने भी गैर जिम्मेदाराना तरीके से किसान आंदोलन को लेकर टिप्पणियां की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि किसानों को कुछ ताकतों ने भरमा दिया है, जबकि केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीनों कृषि कानून किसानों की किस्मत बदलने वाले हैं।
लेकिन सरकार की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हुई और आखिरकार उसे किसानों से बातचीत शुरू करनी पड़ी। शुरू में किसान आंदोलन को अनदेखा करने और फिर कानूनों में कोई भी फेरबदल न करने पर अड़ी सरकार नौवें दौर की बातचीत तक आते-आते तीनों कानूनों में संशोधन करने, एमएसपी पर समिति बनाने और डेढ़ साल तक के लिए कानूनों को स्थगित करने को तैयार हो गई। लेकिन किसान संगठन अपने रुख में बिना कोई बदलाव किए सिर्फ अपनी दो मांगों पर कायम हैं कि तीनों कानून बिना शर्त वापस हों और एमएसपी पर खऱीद की बाध्यता को कानूनी जामा पहनाया जाए।

आंदोलनकारी किसानों के एक प्रमुख नेता गुरनाम सिंह चढूनी के मुताबिक हर आंदोलन के पांच दौर होते हैं। पहले दौर में सरकारें उसे अनदेखा करती हैं। दूसरे दौर में उसके खिलाफ दुष्प्रचार करवाया जाता है। तीसरे दौर में बातचीत को लंबा चलाकर आंदोलन को थकाने की कोशिश होती है। चौथे दौर में उसे साजिश करके तोड़ने और बदनाम करके उसका जन समर्थन खत्म करने की कोशिश होती है। और अगर आंदोलन फिर भी जारी रहता है तो पांचवे दौर में सरकार को झुककर समझौता करना पड़ता है। चढ़ूनी ने यह बात 26 जनवरी की शाम सिंघु बॉर्डर पर किसान संगठनों के नेताओं की बैठक में कही। उन्होंने कहा कि किसान आंदोलन अब अपने चौथे दौर में है और अगर यह दौर हमने सफलता पूर्वक पार कर लिया तो पांचवे दौर में सरकार को हमारी मांग माननी ही होगी। उधर उत्तर प्रदेश के एक मजबूत किसान नेता और भारतीय किसान मजदूर संगठन वीएम सिंह ने खुद को इस आंदोलन से न सिर्फ अलग किया बल्कि उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस करके भाकियू नेता राकेश टिकैत पर कई तरह के आरोप भी लगाए।

उनकी देखा देखी भाकियू (भानू) ने भी अपने को आंदोलन से अलग करते हुए चिल्ला बॉर्डर का धरना समाप्त कर दिया।हालांकि भानू गुट में इस फैसले को लेकर फूट पड़ गई और उसकी उत्तराखंड इकाई ने संगठन से खुद को अलग कर लिया। वैसे भी वीएम सिंह और भानू किसान आंदोलन को बाहर से ही समर्थन दे रहे थे। न तो वह संयुक्त किसान मोर्चा का हिस्सा हैं और न ही उन्हें सरकार के साथ होने वाली बातचीत में शामिल किया जाता है।

वीएम सिंह के अलग होने से गाजीपुर बॉर्डर में पीलीभीत बरेली क्षेत्र से आए किसानों की भागीदारी 27 जनवरी को कम हो गई थी। लेकिन बाद में राकेश टिकैत के भावुक होने और अजित सिंह के मैदान में आने से उससे कई गुना ज्यादा किसान वापस आ गए। इसके बावजूद मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इसे किसान आंदोलन में फूट के रूप में प्रचारित करता रहा, जबकि इन दोनों का किसान आंदोलन से अलग होना अकाली दल और शिवसेना के एनडीए से अलग होने से भी कम अहमियत रखता है।

उधर राकेश टिकैत की भावुक अपील ने हरियाणा की राजनीति को भी गरमा दिया है। दिग्गज किसान नेता रहे चौधरी देवीलाल के दूसरे पोते अभय चौटाला ने किसानों के समर्थन में हरियाणा विधानसभा से इस्तीफा देकर अपने भतीजे और राज्य के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत सिंह चौटाला को दबाव में ला दिया है। बताया जाता है कि अपने समर्थकों को अभय चौटाला ने भी किसानों के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करने को कहा है।

अब गाजीपुर बॉर्डर पर फिर हजारों किसानों ने अपना डेरा जमा लिया और राकेश टिकैत के टिक जाने का असर दूसरे मोर्चों पर भी पड़ा और हरियाणा की सीमा से सटे टीकरी और सिंघु बार्डर में भी किसान डट गए। तीस जनवरी को गांधी जी की पुण्यतिथि पर किसान नेताओं ने अपने सभी धरना स्थलों पर एक दिन का अनशन भी किया। किसानों ने इस दिन को किसान सद्भावना दिवस के रूप में मना कर एक तरह से 26 जनवरी को आईटीओ पर हुई हिंसा और लाल किला पर हुई शर्मनाक घटना पर दुख प्रकट करते हुए प्रायश्चित सा किया है।

किसान नेता हरपाल सिंह बिलारी कहते हैं कि किसानों का पूरा आंदोलन गांधीवादी तरीके से ही चल रहा है और हम गांधी के रास्ते पर ही चलेंगे। भले ही हमें कोई कितना भी भड़काए या हड़काए पर हम गांधी का रास्ता नहीं छोड़ेंगे। कृषि मामलों के जानकार और किसान शक्ति संगठन के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह के मुताबिक गणतंत्र दिवस की घटना ने आंदोलन को एक झटका जरूर दिया था, लेकिन अब किसान उस सदमे और झटके से उबर चुके हैं और वो तीनों कानूनों की वापसी तक अपना संघर्ष जारी रखने को प्रतिबद्ध हैं। आंदोलन से खुद को अलग कर चुके किसान नेता वीएम सिंह कहते हैं कि उनके लिए किसानों को उनकी फसल का लाभकारी मूल्य और एमएसपी दिलाना ही सबसे बड़ा मुद्दा है और वह इसके लिए अपनी कानूनी लड़ाई जारी रखेंगे।

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