चौतरफा मुकाबले की बिछती बिसात में उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए ये चुनाव वैसी ही लड़ाई है, जैसे नीतीश के लिए बिहार में थी. क्या बहुमत के लिए वे भाजपा की तरफ देख सकती हैं?
बसपा के संस्थापक कांशीराम ने किसी समय भारतीय जनता पार्टी को कोबरा कहा था, लेकिन उनके मुताबिक मुलायम सिंह यादव एक ऐसा सांप है, जो भाजपा से ज्यादा खतरनाक हैं और जहरीला भी. इसके बावजूद सत्ता के लिए भाजपा और बहुजन समाज पार्टी के बीच छुआछूत पहले भी कई बार भुलाई गई है. लखनऊ में ये सवाल कई जगह कौंधने लगे हैं कि क्या मायावती फिर से भाजपा का समर्थन लेकर सरकार बनाएंगी. ये साथ मिलकर होगा या बाहरी समर्थन से, ये चुनाव के नतीजे तय करेंगे.
अस्तित्व की लड़ाई:
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन के बाद चतुष्कोणीय बिसात पर चुनावी सर्वे अखिलेश-राहुल गठबंधन को बढ़त दिखा रहे हैं, लेकिन बहुमत किसी को नहीं दे रहे. उधर नरेंद्र मोदी के लिए ये हाफ टाइम है और 71 भाजपा सांसदों वाले उत्तर प्रदेश से पकड़ खोने के कई तरह के मतलब होंगे. समझने के अलग, निकालने के अलग. मायावती सिर्फ एक बार 2007 में अकेले बहुमत हासिल कर पाई थीं. इससे पहले 1995 में उन्हें भाजपा से बाहरी समर्थन मिला था. 1997 और 2002 में वे भाजपा के साथ सरकार बनाकर मुख्यमंत्री बन सकीं.
ध्यान देने वाली बात ये है कि कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों ने अभी तक सीधे—सीधे मायावती पर हमला नहीं किया है. मोदी सरकार, अखिलेश सरकार और समाजवादी पार्टी पर सबसे ज्यादा आक्रामक रही है. यहां तक कि परिवार के झगड़े पर भी नेताओं ने बयान दिए हैं, लेकिन मायावती के खिलाफ किसी ने भी सीधे हमला नहीं किया. अपने बयान में वे बसपा को बस सपा के साथ जोड़कर ही हमले करते हैं. पता नहीं कब बसपा की जरूरत पड़ जाए?
मुस्लिम वोट पर असर :
भाजपा-बसपा के संभावित गठजोड़ का बड़ा असर उस मुस्लिम वोट पर भी पड़ेगा, जो बसपा को पहले से समर्थन देता रहा है. 19 फीसदी मुस्लिम वोटरों के लिए भाजपा को वोट देना मुश्किल है और भाजपा ने भी अभी तक 403 सीटों के लिए एक भी मुस्लिम को टिकट देने लायक नहीं समझा है. ऐसे भी मुस्लिम वोटर की मजबूरी ये हो सकती है कि वह अखिलेश-राहुल गठजोड़ की तरफ देखने लगे. भले ही सपा से उसकी शिकायतें कम नहीं.
चौतरफा मुकाबला :
इस बिसात पर जिसे 30 फीसदी वोट मिलते हैं, सरकार बना ले जाता है. पिछली बार समाजवादी पार्टी करीब 29 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल कर बहुमत की सरकार बनाने में सफल रही थी. उस बार सपा अकेले चुनाव लड़ रही थी और बसपा, कांग्रेस व भाजपा ने भी अकेले ही चुनाव लड़ा था. इस चुनाव में सपा को 224 सीटें मिली थीं, जबकि बसपा को 80, बीजेपी को 47, कांग्रेस को 28, रालोद को 9 और अन्य को 24 सीटें मिलीं थीं.
भाजपा की मजबूरी :
भाजपा अगड़ी जातियों में मजबूत मानी जाती है, जो करीब 20 प्रतिशत हैं. इनमें 9 प्रतिशत के आसपास ब्राह्मण मतदाता हैं. मायावती ने हालांकि कई सारे ब्राह्मण मैदान में उतारकर इसमें सेंध लगाने की कोशिश की है, लेकिन आरक्षण को लेकर दोनों ही दलों के रुख को देखते हुए 75 फीसदी सवर्ण वोट भी भाजपा के पास गए तो ये करीब 15 प्रतिशत का वोट शेयर बनता है. उधर भाजपा ने भी इस बार चुनावों में पिछड़ी जातियों को खासा महत्व दिया है. बसपा के भी कई दिग्गजों को पार्टी में शामिल किया है.
2014 के चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद बसपा ने जमीनी स्तर पर काफी मेहनत की है. मायावती की जाति जाटव शुरू से ही बसपा का अधार रही है. दलितों की 22 प्रतिशत आबादी में यह करीब 14 प्रतिशत है. छोटी—छोटी सभाएं, रतजगा कार्यक्रमों आदि से बसपा ने अपने गैर जाटव दलित वोट बैंक को वापस लाने की पुरजोर कोशिश की है. रोहित वेमुला मामला हो या ऊना में दलितों की पिटाई का मामला, इस मुद्दे पर मायावती काफी मुखर रही हैं. ऐसी स्थिति में अगर वे 20 प्रतिशत वोट भी हासिल करने में कामयाब रहती हैं तो उनके लिए वो सीटें बोनस ही साबित होंगी, जहां भाजपा के सामने बसपा प्रत्याशी सीधी लड़ाई में है, क्योंकि मुस्लिम वोट उसे ही जाएगा. कुल मिलाकर देखें तो करीब 25 फीसदी वोट प्रतिशत बसपा हासिल करती दिख रही है.
अगर बसपा का गणित फिट भी बैठ जाए, तो बहुमत के लिए उसे किसी का तो मुंह देखना पड़ेगा. बसपा को लेकर कांग्रेस संभलकर चल रही है लेकिन चुनाव बाद सपा से गठबंधन तोड़कर कांग्रेस को समर्थन देने की गुंजाइश कम है. भाजपा के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है.