महाराष्ट्र के कोंकण इलाके से अति प्राचीन भगवान गणेश की मूर्ति चुराने वाले दस आरोपियों को अदालत ने हत्या और ऐतिहासिक मूर्ति चुराने के जुर्म में दोषी करार दिया है. इनमें से पांच दोषियों को आलीबाग की विशेष अदालत ने आखरी सांस तक उम्रकैद की सजा सुनाई है
ये था पूरा मामला
पांच साल पहले यानी वर्ष 2012 के मार्च महीने में जब सुबह दिवेआगर गांव के लोग सागर किनारे टहलने के लिए निकले तो उन्होंने देखा कि गांव के बीचो बीच बने गणेश मंदिर में दोनों पहरेदारों के खून से लथपथ शव मंदिर के ही बरामदे में पड़े थे. मंदिर के गर्भगृह से दो हजार साल पुरानी गणेश भगवान की सोने की मूर्ति गायब थी.
इस सूचना मिलते ही जिला पुलिस मुख्यालय से वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, और फॉरेंसिक टीम ने इस मामले की गहन छानबीन की. सभी ने दिन रात एक करके इस चोरी और कत्ल की वारदात का खुलासा किया. जिसमें 12 लोगों को गिरफ़्तार किया गया था.
शातिर अपराधियों ने दिवेआगर से 1000 किलोमीटर दूर विदर्भ इलाके में उस प्राचीन सोने की मूर्ति को दो सुनारों की मदद से पिघलाया था. इसी वजह से दोनों सुनारों को भी अदालत ने दोषी पाया. पांच साल की क़ानूनी जिरह के बाद आलीबाग की विशेष अदालत ने इस मामले के 12 आरोपियों में से दस आरोपियों को दोषी करार दिया. दो को बरी किया गया.
अब इस मामले में विशेष अदालत ने दस आरोपियों में से 5 दोषियों उनकी आखरी सांस तक उम्र कैद की सजा सुनाई है. इस अपराध में शामिल तीन महिलाओं को 10-10 साल की सजा सुनाई गई है. जबकि दोनों सुनारों को 9 साल की सजा सुनाई गई है.
बहुत खास थी भगवान गणेश की मूर्ति
जिस मूर्ति की वजह से ये सारा मामला हुआ, वो कोई आम सोने की मूर्ति नहीं थी. बल्कि वह दो हजार साल पुरानी गणेश भगवान की मूर्ति थी. जो प्राचीन होने के साथ-साथ बहुत दुर्लभ भी थी. शुद्ध सोने से बनी उस मूर्ति का वजन डेढ़ किलो था. समुद्र किनारे बसे दिवेआगर गांव में इस प्राचीन मूर्ति के दर्शन करने देश-विदेश से बड़ी संख्या में श्रृदालु और सैलानी आया करते थे.
प्राचीन मूर्ति का इतिहास
कोंकण इलाके के दिवेआगर गांव के बारे में इतिहासकार बताते हैं कि इस छोटे से गांव का जिक्र 973 B.C. के एक ताम्रपत्र पर पाया गया था. वह ताम्रपत्र रायगढ़ जिले के वेलास गांव में खुदाई के दौरान मिला था. वेलास गांव दिवेआगर से उत्तरी दिशा में तक़रीबन दस किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है.
इतिहासकार बताते हैं कि उस वक्त इलाके के एक बड़े कारोबारी मुनिराज शिलेदार ने सन 1053 AD में दिवेआगर में प्रशासकीय दफ्तर की शुरुआत की थी और इस इलाके के प्रशासकीय अधिकार तभी दिवेआगर गांव को दिए गए थे. शिलेदार परिवार ने इस इलाके में 400 साल से ज्यादा काम किया. सारे इलाके में गांवों से लगान वसूल करने का जिम्मा और हक़ उन्हीं का था.
अच्छी लगान वसूली की वजह से वह प्रशासकीय मुख्यालय सबसे अमीर कहलाने लगा. उस दौर में दिवेआगर ने अरब डकैतों के कई आक्रमण भी झेले. वे डकैत अक्सर समुंद्र के रास्ते आकर हमला करते थे. इतिहासकारों की मानें तो सोने की वह मूर्ति उस दौर में भी कई बार सूझ-बूझ से गांववालों ने बचाई थी.
ऐसे मिली थी मूर्ति
17 नवंबर 1998 को गांव के मंदिर के पास खुदाई के दौरान एक बड़े से बक्से में भगवान गणेश की वह मूर्ति मिली थी. वह बक्सा कॉपर से बना था, जिसे जमीन से सिर्फ तीन फुट नीचे पाया गया था. इसलिए नियमों के अनुसार एएसआई ने यानी पुरातन विभाग ने वह मूर्ति गांववालों को ही सौंप दी थी. 1998 से लेकर 2012 तक वह प्राचीन मूर्ति दिवेआगर के मंदिर में ही स्थापित थी. जिसे मार्च 2012 में चोरी कर लिया गया था.