उनकी खुद की तो कोई औलाद नहीं है, लेकिन आज 310 बच्चे उन्हें प्यार से ‘पापा” कहकर बुलाते हैं। ये वो बच्चे हैं जो गरीब घर के होने के साथ ही दिव्यांग हैं। लेकिन ‘पापा” ने न सिर्फ उनकी परवरिश की, बल्कि उपचार और शिक्षा देने के साथ ही आत्म निर्भर बना दिया। वर्तमान में ऐसे 140 बच्चे अपने परिवार को सहारा दे रहे है, जो कभी परिवार के लिए बोझ लगते थे।
शहर के कल्ला शाह के अहाता में रहने वाले सरदार खान (66) किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पेशे से टेलर सरदार खान के पिता स्व. जिया हुसैन खान पुलिस में हवलदार थे। 39 साल पहले दुकान पर आए एक हट्टे-कट्टे भिखारी को सरदार खान के पांच रुपए दे दिए। यह देख पिता ने सरदार खान को फटकार लगाई। साथ ही नसीहत दी कि हमेशा मदद किसी लाचार, मोहाताज की करना।
तभी से सरदार खान ने गरीब दिव्यांग बच्चों को खोजकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का बीड़ा उठा लिया। जुनून की तरह शुरू की गई इस मानव सेवा में पत्नी रिजवाना खान ने भी कंधे से कंधा मिलाकर सहारा दिया। दोनों की कोई औलाद न होने से उन्होंने दिव्यांग बच्चों को अपनी औलाद की तरह प्यार दिया। यही वजह है कि उनकी संस्था में आने वाले सभी बच्चे सरदार खान को प्यार से ‘पापा” कहते हैं।
चार बच्चों से की शुरुआत
सरदार खान बताते हैं कि वर्ष 1978 में उन्होंने जिंसी चौराहा पर अपनी दुकान जीनियस टेलर के पास एक शेड में चार बच्चों की मदद कर शुरूआत की। तब उन्हें तालीम के साथ ही उन्हें सिलाई, कढ़ाई, जरी का हुनर सिखाया। इसके बाद शुभम विकलांग एवं समाज सेवा समिति का काम लगातार बढ़ता रहा। वर्तमान में कोहेफिजा स्थित उनकी संस्था में 62 बच्चे पढ़ने के साथ ही कम्प्यूटर और अन्य ट्रेड में प्रशिक्षण ले रहे हैं। बच्चों को वह पहली कक्षा से लेकर ग्रेजुएट होने तक पढ़ाते हैं। अभी तक वह 310 बच्चों को आत्मनिर्भर बना चुके हैं। इन बच्चों को उन्होंने प्रदेश के कई जिलों से खुद खोजा और साथ लेकर आए थे। संस्था ने 125 दिव्यांग बच्चों को गोद लेकर उनका पुनर्वास भी कराया।
गिरवी रखा है घर
सरदार खान के सेवा भाव में पूरा परिवार उनके साथ है। बच्चों के रहने, खाने-पीने के साथ शिक्षा और उपचार का खर्च वह खुद वहन करते हैं। इसके बदले में सरकारी इमदाद उन्हें काफी कम मिलती है। यहां तक कि सेवा कार्य के लिए उन्होंने अपना पुश्तैनी मकान भी गिरवी रखा हुआ है। खान बताते है कि वर्ष 1993 में सामाजिक न्याय विभाग और महिला एवं बाल विकास विभाग ने उनकी संस्था को मान्यता प्रदान कर दी है। लेकिन सरकारी मदद खर्च के मुकाबले कम मिलती है। एक बच्चे पर प्रति माह पांच हजार रुपए तक खर्च हो जाता है, जबकि सरकारी मदद एक बच्चे के लिए सिर्फ एक हजार रुपए मिलती है। वह भी समय पर नहीं मिलती। लेकिन वह निराश नहीं है और अपना काम पूरी शिद्दत से आगे बढ़ा रहे हैं।