इस समाधि के अतिरिक्त गंगौली के सय्यदों ने एक ‘कर्बला’ भी बनवाया. यह कर्बला समाधि के दक्षिण में है और खुद समाधि गंगौली के पूरब में है. इन लोगों ने एक तालाब भी खुदवाया जो गांव के पश्चिमी सिरे पर है. यह तालाब नूरुद्दीन शहीद के उत्तराधिकारियों ने ही बनवाया होगा, क्योंकि इसके आसपास किसी मंदिर का निशान नहीं है. तालाब से निकली हुई मिट्टी के टीलों पर आम और जामुन के पेड़ हैं और गांव के मीर साहिबान दस मोहर्रम को, इन्हीं टीलों पर नमाज़ पढ़ने आते हैं. इस तालाब के पश्चिम में चूने का बना हुआ तीन दरों वाला नील का एक वीरान कारख़ाना है जिसे हम लोग न मालूम क्यों गोदाम कहते हैं. यह जॉन गिलक्राइस्ट की यादगार है यानी एक और ही युग की निशानी है. अब तो यह सिर्फ़ चरवाहों के काम आता है जो उस बैठकर ईख खाते हैं और यह प्रेमियों के काम आता है. यहां चाहे हीर को रांझा न मिलता हो, परन्तु बदन को बदन अवश्य मिल जाता है.

एक टूटी-फूटी समाधि और एक उजड़े हुए कारख़ाने के बीच में यह गांव आबाद है. गंगौली के कोनों पर सय्यद लोगों के मकान हैं. कुल मिलाकर दस घर होंगे. दक्षिणवाले घर दक्षिणी पट्टी कहलाते हैं और उत्तरवाले उत्तरी पट्टी. बीच में जुलाहों के घर हैं. सिब्तू दा के घर से राक़ियों की आबादी शुरू हो जाती है और फिर गंदी, कच्ची गली गंगौली के बाज़ार में दाख़िल हो जाती है और नीची दुकानों और खुजली के मारे हुए कुत्तों से दबकर गुज़रती हुई नूरुद्दीन शहीद की समाधि के खुले हुए वातावरण में आकर इत्मीनान की सांसें लेती है.

गांव के आस-पास झोपड़ों के कई ‘पूरे’ आबाद हैं. किसी में चमार रहते हैं, किसी में भर और किसी में अहीर. गंगौली में तीन बड़े दरवाज़े हैं. एक उत्तर पट्टी में और पक्कड़ तले कहा जाता है. यह लकड़ी का एक बड़ा-सा फाटक है. सामने ही पक्कड़ का एक पेड़ है. चौखट से उतरते ही दाहिनी तरफ कई इमाम चौक हैं जिन पर नौ मोहर्रम की लकड़ी के खूबसूरत ताज़िए रखे जाते हैं और फिर एक बड़ा आंगन है. ज़मींदारों में इन बड़े आंगनों का एक बड़ा सामाजिक महत्व है. आसामियों की बरातें यहीं उतरती हैं, मरने-जीने का खाना यहीं होता है. आसामियों को सज़ा यहीं दी जाती है. पट्टीदारी के मामले यहीं उलझाए जाते हैं और सुलझाए जाते हैं और यहीं थानेदारों, डिप्टियों और कलक्टरों का नाच-रंग होता है- ये आंगन न हों तो ज़मीदारियां ही न चले. तो एक बड़ा फाटक उत्तर पट्टी में भी है और दो दक्षिण पट्टी में. एक जहीर चा के पुरखों का, यानी दद्दा के मायकेवालों का. इस फाटक का नाम ‘बड़का’ फाटक है. और बड़ा दरवाज़ा अब्बू दा के बुज़ुर्गों का है जो! अब्बू मियां का फाटक’ कहा जाता है. हमें इन्हीं तीनों और इनके चारों तरफ रहनेवाले सय्यद परिवारों में जाना है।

हाँ, एक बात और. यह गंगौली कोई काल्पनिक गांव नहीं है और इस गांव में जो घर नज़र आएंगे वे भी काल्पनिक नहीं हैं. मैंने तो केवल इतना किया है इन मकानों मकानवालों से ख़ाली करवाकर इस उपन्यास के पात्रों को बसा दिया है. ये पात्र ऐसे हैं कि इस वातावरण में अजनबी नहीं मालूम, होंगे और शायद आप भी अनुभव करें कि फुन्नन मियां, अब्बू मियां, झंगटिया बो, मौलवी बेदार, कोमिला, बबरमुआ, बलराम चमार, हकीम अली कबीर, गया अहीर और अनवारुलहसन’ राक़ी और दूसरे तमाम लोग भी गंगौली के रहने वाले हैं लेकिन मैंने इन काल्पनिक पात्रों में कुछ असल पात्रों को भी फेंट दिया है. ये असली पात्र मेरे घरवाले हैं जिनसे मैंने यथार्थ की पृष्ठभूमि बनाई है और जिनके कारण इस कहानी के काल्पनिक पात्र भी मुझसे बेतकल्लुफ़ हो गए हैं. आइए, अब चलें.