देहरादून: पर्वतीय अंचल में भारतीय नववर्ष की शुरुआत आज भी हर परिवार के घर-आंगन में पारंपरिक लोकवाद्यों की थाप से होती है। नववर्ष की खुशियों को घर-घर और गांव-गांव तक पहुंचाने के लिए लोकवादक चैत्र (चैत) मास के दौरान अपनी यजमानी में जाकर ढोल-दमाऊ की गमक के बीच दीसा-धियाण के मंगल की कामना करते हैं। इसलिए चैत को ‘नचदू मैना’ (नाचने वाला महीना) की संज्ञा दी गई है। महीने के अंतिम दिन यानी बैसाखी (बिखोत) को लोकवादक टोकरी में जौ की हरियाली अपनी-अपनी यजमानी में बांटते हैं। गांव का हर परिवार इसे अपने घर की चौखट के दोनों कोनों पर लगा देता है। कुछ लोग हरियाली को अन्न-धन के भंडार में भी रखते थे।
इसके साथ ही चैत्र मास की प्रत्येक सुबह की शुरुआत रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू से होती है। चैत्र संक्रांति (फुल संग्रांद) से गांव की बेटियां (फुलारी) रिंगाल की टोकरी में भांति-भांति के फूल लेकर भोर होते ही उन्हें गांव की हर चौखट (देहरी) के दोनों कोनों में बिखेर देती हैं। साथ ही मधुर कंठ से गाती हैं, ‘फूल देई-फूल देई संगरांद, फूलदेई-फूलदेई, छम्मा देई-छम्मा देई, देणि द्वार, भर भकार, तैं देलि स बारंबार नमस्कार।’ फूलों में मुख्य रूप से बुरांश, फ्योंली, ग्वीराल (कचनार) व पलाश (मंदार) अत्यंत पवित्र माने जाते हैं।
इसके अलावा भौगोलिक आधार पर उपलब्ध अन्य फूल भी फुलारियां हर आंगन में अपने रीति-रिवाजों के आधार पर बिखेरती हैं। और…पूरे महीने वातावरण में गूंजता रहता है यह गीत- ‘फूल देई-फूल देई संगरांद, सुफल करो नयो साल तुमकु श्रीभगवान, रंगीला-सजीला फूल ऐगीं, डाला बोटला हर्यां ह्वेगीं, पौन-पंछी दौड़ी गैन, डाल्यूं फूल हंसदा ऐन, तुमारा भंडार भर्यान, अन्न-धन कि बरकत ह्वेन, औंद रओ ऋतु मास, होंद रओ सबकू संगरांद, बच्यां रौला तुम-हम त, फिर होली फूल संगरांद, फूल देई-फूल देई संगरांद।’ बिखोती पर घर-घर में पारंपरिक व्यंजन स्वाले-पकौड़े बनते हैं। पूरा गांव फुलारियों का अभिनंदन और मान-सम्मान करता है। इसके साथ ही साथ कई गांवों में पारंपरिक गीत-नृत्य थड़िया-चौंफला की छटा भी बिखरती है।
हालांकि, बीते डेढ़ दशक में यह परंपरा अंतराल के गांवों तक ही सिमट कर रह गई थी। लेकिन, हालिया वर्षों में कुछ सामाजिक संगठनों ने इसे देहरादून जैसे शहरों में भी जीवंत कर लोक को संजीवनी प्रदान की है। बीते तीन वर्षों से ‘रंगोली उत्सव’ नाम से शशिभूषण मैठाणी फुलदेई पर्व को दून के प्रतिष्ठित विद्यालयों में अध्ययनरत छोटी-छोटी बालिकाओं के साथ धूमधाम से मना रहे हैं। मैठाणी का यह प्रयास लोकपर्व की सार्थकता के साथ पहाड़ की उस सोच को भी विकसित करता है, जिसमें पहाड़ का जनमानस रचा बसा है।