दुनिया का हर देश अपने बच्चों के पुष्पित- पल्लवित होने को संरक्षित रखने में विफल रहा है। पारिस्थितिकी को खराब कर, जलवायु परिवर्तन और बाजारी प्रक्रियाओं के अति दोहन ने सभी देशों में बच्चों के स्वास्थ्य और उनके सुनहरे भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल लैंसेट द्वारा गठित आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दो दशक में भले ही बच्चों की उतरजीविता, पोषण और शिक्षा में आमूलचूल सुधार हुए हों, लेकिन आज हर बच्चे का भविष्य मौजूद खतरों के चलते अनिश्चित बना हुआ है। भारत भी इस सूचकांक में औसत देशों के दर्जे में शामिल है।
ऐसे हुआ अध्ययन
180 देशों में किए गए इस अध्ययन में कई मानक शामिल किए गए। इनमें उतरजीविता, कल्याण, स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के साथ ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में टिकाऊपन और आय में अंतर शामिल रहे।
खराब देश
मध्य अफ्रीकी देश, चाड, सोमालिया, नाइजर, माली इस सूचकांक में सबसे नीचे शामिल हैं।
खतरनाक बाजारी प्रक्रियाएं
रिपोर्ट में फास्ट फूड और अत्यधिक शर्करा युक्त पेय पदार्थों से बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले हानिकारक असर पर दुनिया को चेताया गया है। 1975 के मुकाबले दुनिया में मोटापे के शिकार बच्चों की संख्या में 11 गुना वृद्धि हो चुकी है। 1975 में इनकी संख्या 1.10 करोड़ अब 12.40 करोड़ पहुंच चुकी है।
शीर्ष पर ये देश
नॉर्वे, दक्षिण कोरिया, नीदरलैंड्स, फ्रांस और आयरलैंड बच्चों के पुष्पित-पल्लवित होने के लिहाज से शीर्ष पर हैं।
कार्बन उत्सर्जन का उलटफेर
जब देशों का इस संबंध में प्रदर्शन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से आंका गया तो बुरुंडी, चाड और सोमालिया सबसे अच्छे पाए गए। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और सऊदी अरब जैसे देश निचले दस देशों की सूची में रहे। इस स्थिति में नॉर्वे की रैंकिंग 156वीं, कोरिया 166, नीदरलैंड्स 160 रही। ये तीनों देश अपने 2030 के लक्ष्य की तुलना में प्रति व्यक्ति 210 फीसद ज्यादा कार्बन उत्सर्जित कर रहे हैं।