छुट्टी पर जाने वाले हैं, टिकट करा ली है. दफ्तर से बाहर निकलकर हंसते हुए फोन पर उंगलियां चल रही हैं. आपने पढ़ा, ‘घटना स्थल पर पटरी टूटी पाई गई. जानकारी के अनुसार ट्रेन हादसे में 8 लोगों के मरने की खबर है. मृतकों का आंकड़ा अभी और बढ़ने की आशंका है.’ एकाएक आपकी मुस्कान थम गई. ट्रेन से जाने के लिए मन नहीं मान रहा.
क्यों डर गए?
अगले ही दिन कोई करीबी ट्रेन से आने या जाने वाला है तो मन से आवाज आ रही है, उसे ठहरने के लिए कहें.
क्यों? ऐसा क्यों होता है हमारे साथ?
बच्चे को स्कूल छोड़ने जा रहे हैं तो ज़हन में कल की पढ़ी खबर अभी तक बार-बार घूम रही है. ‘गुरुग्राम के रायन इंटरनेशनल स्कूल की दूसरी कक्षा का छात्र प्रद्युम्न आठ सितंबर को स्कूल परिसर में मृत पाया गया. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने इस केस की CBI जांच और स्कूल को तीन महीने तक टेकओवर करने का ऐलान किया है.’
अपने बच्चे को स्कूल भेजते या जाते देख आपका मन बैठा जा रहा है. क्यों ? आखिर इस डर की वजह क्या है ?
आप एक और खबर से रूबरू हुए, ‘रेप के आरोप में सजा काट रहे राम रहीम और आसाराम के बाद, राजस्थान के (अलवर जिले) बाबा फलाहारी के खिलाफ एक महिला अनुयायी ने दुष्कर्म का मामला दर्ज करा दिया है.’ इसे सुनने के बाद आप घर की महिलाओं को कहीं भी सुरक्षित नहीं मान रहे.
अपनों के लिए क्यों डर जाते हैं हम ?
साइकॉलोजिस्ट्स बता रहे हैं, जो हमारे साथ हुआ ही नहीं, उसका भी डर क्यों सताता है ?
बीकेएल हॉस्पिटल के साइकॉलोजिस्ट रिपान सिप्पी ने से बातचीत में बताया कि ये डर एक साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर है, जिसे PTSD (पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) कहते हैं. किसी के साथ डरावनी, दुख देने वाली या ऐसी घटना घटी हो जिसका ख्याल भी विचलित कर दे. जब उसी तरह की चीजें फिर से होती हैं तो वही डर की भावनाएं भी फिर पैदा होती हैं, जिनसे हम डर, बेचैनी का अनुभव करते हैं. हताश हो जाते हैं.
स्टूडेंट प्रद्युम्न की हत्या के बाद से सभी मां-बाप अपने बच्चे की हिफाज़त को लेकर डरे हुए हैं. डॉ. सिप्पी कहते हैं, उनके मन का डर रियलिस्टिक है, क्योंकि सच में जो वाकया हुआ है, उसी की वजह से ज़हन में डर बैठा है. मां-बाप को लग रहा है कि कहीं उनके बच्चे के साथ भी ऐसा कुछ न हो जाए. डॉ. सिप्पी बताते हैं कि डर को जाने में वक्त लगता है, जो कि नैचुरल प्रोसेस है. जैसे-जैसे उनमें कॉन्फिडेंट डवलप होगा, डर कम होता जाएगा.
डर को जाने में कम से कम 2-3 महीने लगते हैं
कॉन्फिडेंट डवलप करने का कोई तरीका नहीं है. विश्वास वक्त के साथ कमाया जाता है. बशर्ते उस दौरान कोई और घटना न घटे. इस बीच किसी भी शख्स को जब ये विश्वास होता है कि जो घटना घटी, वह यदा-कदा होती है. तब वह उस डर से उबरने लगता है. अगर घटना रिपीट होती है, तो वही डर विकराल रूप ले लेता है.
उदाहरण के लिए, अगर कोई बच्चा एक रास्ते से आता-जाता है और किसी दिन उसी रास्ते पर किसी का किडनैप हो जाए. हादसे के बाद कोई भी बच्चा उस रास्ते से जाएगा तो वह डरेगा, ये कॉमन है.
डर के साथ भी अगर रोज उसी रास्ते से आता-जाता रहे तो धीरे धीरे ज़हन ये मान लेता है कि जो हुआ वो महज एक हादसा था, जो रोज़ रोज़ नहीं होता. डर को जाने में कम से कम एक-दो महीने लगते हैं.
डॉ. कंसल ने ट्रेन पटरी से उतरने के हादसों के बाद सफर के नाम से पैदा हुए डर का उदाहरण दिया. उन्होंने कहा कि रोज़ाना सैंकड़ों-हजारों ट्रेनें चलती हैं, पटरी से 2-4 उतरीं. लेकिन उस हादसे को बार बार दिखाया जाता है. न चाहते हुए भी एक ही खबर दिन में कई बार देखने वालों पर गहरा असर पड़ता है.
डर, सिर्फ कुछ वक्त के लिए होता है
डॉ. कंसल ने बताया, ‘किसी भी घटना के बाद जो डर होता है वह सिर्फ उस मौजूदा वक्त के लिए होता है. ये नॉर्मल ह्यूमन साइकॉलोजी का रिएक्शन है. कुछ भी नहीं रुकता. हादसे के तुरंत बाद हम ज्यादा सतर्क हो जाते हैं. स्कूल ऑफ साइकॉलोजी के मुताबिक, डर को साइंस की भाषा में पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर कहते हैं. इससे बाहर निकलने में ‘कम से कम 2 हफ्ते’ का वक्त लगता ही है. इससे निकलने की वजह यही होती है कि हम 2 हफ्तों तक उसी घटना की खबरें, बार-बार नहीं सुन रहे होते.
डॉ. कंसल कहते हैं एक-दो हफ्ते पहले पूरे हिन्दुस्तान के ज़हन में सिर्फ राम-रहीम था, क्योंकि ख़बरों में वही दिखाया जा रहा था. हर शख्स अपने घर की महिलाओं की सुरक्षा को लेकर फिक्रमंद था. उसके बाद हर एक के ज़हन में ट्रेन में सफर करने को लेकर डर था. ऐसा नहीं है कि घटनाओं के बाद ट्रेन में सफर की पाबंदी लगी हो या टिकट मिलनी बंद हो गई है. न ही बच्चों का स्कूल जाना बंद हुआ है.
डॉ. कंसल ने कहा, ‘मेरी भी छोटी बच्ची स्कूल जाती है. मेरे मन में भी डर आता है, लेकिन बावजूद उसके ऐसा नहीं हुआ कि स्कूल में 0% अटेंडेंस हो.’